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सियासत से तालीम का रिश्ता : कौशलेंद्र

कलम से : अफ़गानिस्तान में आठवीं फेल एक तालिब को शिक्षा मंत्री मनोनीत कर दिया गया है । कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि मौत का खेल खेलने वाले अशिक्...

कलम से : अफ़गानिस्तान में आठवीं फेल एक तालिब को शिक्षा मंत्री मनोनीत कर दिया गया है । कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि मौत का खेल खेलने वाले अशिक्षित लोग सियासत कैसे करेंगे? शायद वे पूछना चाहते हैं कि गोली चलाने वाले लोग मंत्रालयों की तकनीकी विशेषज्ञता के अभाव में शासन कैसे कर सकेंगे? यह वर्तमान परिस्थितियों में वर्तमान परम्पराओं की ऐनक से पूछा गया वर्तमान का सवाल है जिसमें दो हजार साल पुरानी परिस्थितियों के पुनरावतरण की कल्पना से उत्पन्न एक हैरत अंगेज़ जिज्ञासा समायी हुयी है । 
मैं पुरानी परिस्थितियों में पुरानी परम्पराओं की ऐनक से अफगानिस्तान के भविष्य को देखने की कोशिश कर रहा हूँ इसलिए मुझे समयचक्र को पीछे की ओर घुमाते हुये मंगोलिया, उज़बेकिस्तान, सीरिया और फ़िलिस्तीन आदि देशों के उस युग में जाना होगा जहाँ आज की तरह की विश्वविद्यालयीन शिक्षा-परम्परा नहीं थी । हमें सिकंदर, मोहम्मद बिन कासिम, चंगेज ख़ान, तैमूर लंग, ज़हीरुद-दीन मोहम्मद बाबर आदि की शिक्षा-दीक्षा पर भी एक दृष्टि डालनी होगी। ये सब अतिमहत्वाकांक्षी और अतिआक्रामक लोग थे जिनकी प्राथमिकताओं में सत्ता शीर्ष पर हुआ करती थी, शिक्षा नहीं । इन्होंने उन लोगों को लूटा या उन पर शासन किया जो उनकी अपेक्षा कहीं अधिक सभ्य और शिक्षित थे । सामने जब नंगी तलवारें हों, जेब में कानून हो, नैतिक मूल्य अनावश्यक मान लिये गये हों और तलवार वाला अपनी ज़िद में हो तो सभ्यता और शिक्षा का भी कोई मूल्य नहीं हुआ करता । जौहरी न हो तो हीरे का क्या मूल्य! 
यूँ, हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि तालिबान लड़ाकों में अशिक्षित ख़ूँख़ार लड़ाके ही नहीं हैं बल्कि उच्चशिक्षित इंजीनियर्स और डॉक्टर्स भी शामिल हैं । अफगानिस्तान ही नहीं पाकिस्तान और भारत सहित दुनिया के दीगर कई देशों में भी बहुत से पढ़े-लिखे काबिल लोग इन्हीं तालिबान की विचारधारा और तौर-तरीकों के प्रशंसक हैं । तालिब का अर्थ अब ज्ञान के लिये जिज्ञासु किसी छात्र की मर्यादाओं को तोड़ कर एक विचारधारा हो गया है जो सत्ता पाने के लिए लाशों को कुचलते हुये आगे बढ़ने में विश्वास रखती है ।   
हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि पढ़े-लिखे जो-वाइडन ने तो अफ़गानिस्तान मामले में बता दिया है कि वे न तो दूरदर्शी हैं और न सही निर्णय ले सकने में सक्षम । पढ़े-लिखे अशरफ़ गनी ने बता दिया है कि वे अपने स्वार्थ के लिये अपने देश की जनता के साथ कितना भी बड़ा विश्वासघात कर सकते हैं । पढ़े-लिखे इमरान ख़ान ने बता दिया है कि वे कितने अजीब और कठपुतली शासक हैं । पढ़े-लिखे देवबंदियों ने अपने मुँह और आचरण से क्या बताया है यह बताने की नहीं गम्भीरतापूर्वक समझने की बात है । 
तालिबान की शासन व्यवस्था आज से दो हजार साल पहले की शासन व्यवस्था से प्रेरित है, यानी वे अफ़गानिस्तान को दो हजार साल पहले के युग में ले जाना चाहते हैं जहाँ आधुनिक तकनीकी ज्ञान और आधुनिक समाज व्यवस्था के लिए कोई स्थान नहीं है । वे उस बर्बर व्यवस्था को लागू करना चाहते हैं जहाँ क़त्ल-ओ-ग़ारत, क्रूरता और ज़ाहिलियत का बोलबाला हो, जहाँ कबीले के सरदार की सोच ही कानून हो और वही अंतिम सत्य भी । ऐसी व्यवस्था के लिए किसी राजनीतिशास्त्र, विधिशास्त्र, अर्थशास्त्र या समाजशास्त्र के ज्ञान का भला क्या औचित्य हो सकता है! वह बात अलग है कि तालिबान को क़त्ल-ओ-ग़ारत से सम्बंधित सारे हथियार और उपकरण अत्याधुनिक ही चाहिये जिनमें अत्याधुनिक तकनीक का स्तेमाल किया जाता है । 
क्रूरता और क़त्ल-ओ-ग़ारत के लिये पढ़ने लिखने की नहीं पोल-पोट, ईदी अमीन और किम-जोंग-उन होने की योग्यता चाहिये । बहरहाल, हम तो अपने प्यारे देश भारत के टीवी चैनल्स पर निहायत असभ्य व्यवहार करते हुये शिक्षित लोगों को दिन भर देखा करते हैं । हमारे गाँव का बउझड़ कहता है – “खेलोगे-कूदोगे बनोगे मंत्री, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे संत्री” ।



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