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तहर्रुश-गेमिया और अ-सहिष्णु हिंदू की वैदिक कामना- कौशलेंद्र ।

कलम से : आठ-दस कुत्तों का एक झुण्ड एकमात्र कुतिया को फ़ॉलो करता हुआ चल रहा है । पीछे-पीछे चलते हुये कुत्ते आपस में लड़ते हैं किंतु कोई कुत्ता...

कलम से : आठ-दस कुत्तों का एक झुण्ड एकमात्र कुतिया को फ़ॉलो करता हुआ चल रहा है । पीछे-पीछे चलते हुये कुत्ते आपस में लड़ते हैं किंतु कोई कुत्ता कुतिया को लेश भी क्षति पहुँचाने की कोशिश नहीं करता । कुतिया के प्रति कुत्तों का यह आचरण उनकी सामाजिक समझ और सभ्यता को प्रदर्शित करता है । 
भूख, भय और भोग के लिए मानव समाज में आदिकाल से संघर्ष होता रहा है । ये ऐसी तीन मौलिक समस्यायें हैं जिनकी हिंसारहित सुचारु व्यवस्था के लिये मनुष्य को सभ्य होना पड़ा । अतः सभ्यता को एक कंडीशनल व्यवस्था कहा जा सकता है जिसका प्रवाह सदैव अधोगामी रहा है । व्यवस्था बनती है, फिर भंग होती है, फिर कुछ सुधार होता है, फिर भंग होती है... यही क्रम न जाने कब से चलता आ रहा है । इन तीन विषयों के लिए हम लाखों साल पहले भी लड़ते थे, आज भी लड़ते हैं । 
इस वर्ष पाकिस्तान में जश्न-ए-आज़ादी मनाते हुये पंद्रह अगस्त के दिन लाहौर के मीनार-ए-पाकिस्तान में एक लड़की को चार सौ लोगों की भीड़ ने तहर्रुश-गेमिया का शिकार बनाया । अबाया और हिज़ाब को तहज़ीब मानने वाले मुल्क के लोगों की एक भीड़ ने रहम की भीख माँगती लड़की के शरीर को लिबास से सरेआम आज़ाद कर दिया । चीखती हुयी लड़की के शरीर के साथ वहशी भीड़ तीन घण्टे तक फ़ुटबॉल की तरह खेलती रही । भीड़ में शामिल कुछ लोग लड़की को बचाने का स्वांग करते हुये उसके शरीर के साथ खेलते रहे तो कुछ लोग भूखे भेड़िये की तरह उसे नोचते रहे । 
सभ्य और विकसित मनुष्य समाज की अधोगामी गति के परिणामस्वरूप ही इस युग में भी तहर्रुश-गेमिया जैसे दुर्दांत और क्रूरष्ट अपराधों का जन्म होता है । तीन घण्टे तक चले इस तमाशे को शासन-प्रशासन ने भी जी भर कर देखा । अगले दिन कुछ इंसाननुमा लोगों ने हो-हल्ला किया तब चार दिन बाद शासन-प्रशासन की ख़ुमारी दूर हुयी और उसने एक कार्यवाही की रस्म अदायगी कर दी । आरज़ू काज़मी को लगता है कि कुछ दिन बाद अपराधियों को आज़ाद कर दिया जायेगा । पाकिस्तान की जेलों में ऐसे अपराधियों के लिये स्थान नहीं होता । 
ऋग वेद के ऋषि की कामना है – “हमारे लिए सभी ओर से कल्याणकारी विचार आयें”। Let noble thoughts come to us from every sode. “आ नो भद्राः क्रतवो यंतु विश्वतः” –ऋग वेद 1-89-1, 
मन, शरीर और आचरण का निरंतर परिमार्जन ही “संस्कार” है । यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जिसमें मर्यादाओं और शिष्टता के साथ आचरणीय संतुलन बनाये रखने का प्रयास किया जाता है । संस्कारवान व्यक्ति सुसंस्कृत माना जाता है, सुख की कामना करने वाले समाज के लिये यही अभीष्ट है । भारतीय संस्कृति के मूल आधार में “वसुधैव कुटुम्बकम्” का भाव है । वैदिक ऋषि विश्वकल्याण की सदा कामना करते रहे – “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चित् दुःखभाग भवेत्”। 
शॉपेन हॉर जैसे बहुत से वामपंथी चिंतक भी मेरी तरह वैदिक वाङ्गमय से प्रभावित होते रहे हैं । वह बात अलग है कि प्रगतिशील विचारक होने के कारण भारतीय संस्कृति की ऊर्ध्वगामी चिंतनधारा को “मनुवादी” कहकर गाली दी जा सकती है, वेदों को जलाया जा सकता है, उपनिषदों, स्मृति ग्रंथों और पुराणों आदि की घोर निंदा करते हुये भारतीय संस्कृति की घोर निंदा की जा सकती है । तहर्रुश-गेमिया जैसी स्वेच्छाचारिता की पृष्ठभूमि के लिये यह सब आवश्यक है ।

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