Page Nav

HIDE

Grid

GRID_STYLE

Pages

Classic Header

{fbt_classic_header}

Top Ad

गाँधी का देशकाल(गांधी जयंती पर बादल सरोज का विशेष आलेख)

एक              जगदलपुर:   किसी भी व्यक्ति या विचार का मूल्यांकन करने का सही तरीका उसे उसके देश-काल में - टाइम एंड स्पेस में - बांधकर समझना ...


एक            
जगदलपुर:  किसी भी व्यक्ति या विचार का मूल्यांकन करने का सही तरीका उसे उसके देश-काल में - टाइम एंड स्पेस में - बांधकर समझना है। गांधी को समझना है, तो उन्हें भी उस समय की परिस्थितियों के साथ जोड़कर देखना होगा। 

गांधी की एक मुश्किल यह है कि उन्हें समग्रता में ही समझा जा सकता है। टुकड़ों में देखने का एक झंझट उनके एकांगी हो जाने का है। ऐसा करने से हरेक अपनी पसंद या नापसंद के गांधी को तो ढूंढ सकता है - मगर गांधी को नहीं समझ सकता। 

सामाजिक विकास की प्रत्येक अवस्था एक युगांतरकारी उथलपुथल का नतीजा होती है। ऐसी हर उथलपुथल और संक्रमणकारी प्रक्रिया/इतिहास के चरणों को बदलने के संघर्ष अपने-अपने नायकों को जन्म देते हैं और प्रकारांतर में वे नायक उस युग के प्रतिनिधि - आइकॉन - बन जाते हैं। भारतीय ऐतिहासिक अवस्था के ऐसे दो निर्णायक प्रस्थान/परिवर्तन बिंदु हैं। एक वह समय है, जब खेती परिपक्व और समृद्ध हुयी।  राज करने की नयी, पहले से विकसित प्रणाली आयी। मौर्य साम्राज्य सहित कोई दर्जन भर नए राज्य - बड़े और प्रभुता संपन्न राज्य - अस्तित्व में आये। आधार (बेस) बदला, तो अधोसंरचना (सुपर स्ट्रक्चर) में भी परिवर्तन आये। राजनीतिक आर्थिक परिवर्तनों ने नए सामाजिक संगठनों को आकार दिया।  अलग-अलग तरह की धार्मिक और दार्शनिक धाराओं का जन्म हुआ और उनका विकास हुआ। पिछली सहस्राब्दी के मध्य तक हुए इन परिवर्तनों  के प्रतीक व्यक्तित्व -आइकॉन- शाक्य मुनि गौतम बुद्ध है।  

बदलाव इसके बाद भी हुए ; कुछ आंतरिक तो कुछ बाहरी कारणों से हुए। मगर यह एक तरह से एक गति बनकर ही सीमित रहे। इनकी  मात्रात्मक तो थी, सभ्यता बदलने लायक गुणात्मकता नहीं थी। सभ्यतायें - सिविलाइजेशन्स -  एक ऐसा बड़ा मानव समाज होती हैं, जिसकी समान आर्थिक, वैचारिक भावनायें हों, जिसका अपना आंतरिक जीवन हो। जिसका बाकी मानव समाज के साथ रचनात्मक तादात्म्य और संवाद हो।  

यह कहा जा सकता है कि करीब डेढ़ सहस्राब्दी तक कमोबेश स्थिरता रही, नवोन्मेष नहीं हुए। विकास का अगला चरण नहीं आया। इसके अनेक कारण हैं, जिन पर चर्चा करना विषयान्तर होगा। इस स्थिरता को तोड़ने के लिए समाज के अगले चरण में - आधुनिकता, बूर्ज्वा मॉडर्निटी के चरण में - जाने की आवश्यकता थी। यह युगांतरकारी, नया युग लाने वाला बदलाव 19वीं और 20वीं सदी में ही आकर हुआ। इसके अनेक-अनेक नायक हैं, किन्तु  मोटे तौर पर गांधी इसके प्रतिनिधि हैं। जनता की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति और उसके प्रतीक।
 
राजनीतिक परिभाषा में बदलाव के इस चरण को बूर्ज्वा मॉडर्निटी - पूंजीवादी आधुनिकता - की स्थापना का चरण कहा जा सकता है। गांधी इसके आइकॉन थे।


दो 
भारतीय समाज के सामंतवाद से अगली अवस्था - पूंजीवाद - में संक्रमण के व्यवधान आंतरिक और बाहरी दोनों थे - जड़ता और ध्वंस - ये दोनों अनजाने में ही एक-दूसरे के पूरक बने। 

कई हजार साल के भारतीय सभ्यता के इतिहास में संक्रमण और समावेश तथा एक-दूसरे से सीखते-सीखते ब्लेंडिंग की अद्भुत मिसालें हैं। शक, हूण, कुषाण, गुर्जर, यवन, तुर्क, मंगोल, आर्य, मुग़ल  सहित  दुनिया भर के लोग अलग-अलग समय में यहां आये। दुनिया के सारे धर्म आये भी और कुछ  देशज धर्म बाहर भी गए। ये जितने भी नस्ल समूह आये, वे सभी यहीं बस कर रह गये -- लौटकर नहीं गए।  
 
इन सबने मिलकर  भारत की सभ्यता की सिर्फ ब्लेंडिंग ही नहीं की, बल्कि उत्पादन शक्ति बढ़ाई और तकनीक में भी परिवर्तन लाये। मुगलों के आख़िरी दौर में विश्व जीडीपी में भारत का हिस्सा, व्यापार का विकास काफी उच्च स्तर  तक पहुँच चुका था। उत्पादकता को विकास की उस अवस्था तक पहुंचाया जा चुका था, जब उसे अगले चरण में ले जाया जा सकता था। अंग्रेजों का आगमन (सिर्फ अंग्रेज ही हैं : जो आये, लूटा और चले गए) वह प्रमुख कारण था, जिसने सारी संभावनाएं  मटियामेट कर  दीं।   

अंग्रेजो ने भारत की उत्पादन शक्ति का ध्वंस जिस परिमाण में किया है, हाल के इतिहास में ऐसी मिसालें कम ही मिलती हैं।  पूर्व में मार्क्स, दादा भाई नौरोजी, रजनी पाम दत्त और उनके बाद डॉ.  रामविलास शर्मा सहित अनेक ने इस बारे में विशद अध्ययन किया है। नौरोजी के मुताबिक़ गज़नी का महमूद 18 बार में जितनी सम्पत्ति लूटकर नहीं ले जा सका, उससे अधिक संपत्ति अंग्रेज हर साल लूटते रहे। कंपनी और अंग्रेजी सरकार के रिकार्ड्स की पड़ताल करके मार्क्स कहते हैं कि अंग्रेजों की सालाना लूट 6 करोड़ खेतमजदूरों की सालाना कमाई से भी अधिक होती थी।  

अंग्रेजों ने अपने उद्योगों का माल खपाने के लिए भारतीय उत्पादन प्रणाली की रीढ़ ही तोड़कर रख दी। मेंचेस्टर की मिलों के कपड़े के भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार को बनाने के लिए ढाका का कपड़ा उद्योग तबाह किया गया। वहां की आबादी, जो वर्ष 1880 में 2 लाख थी, वर्ष 1890  में करीब एक तिहाई -- 79 हजार रह गयी। देश की कुल शहरी आबादी जो 18वीं सदी में करीब 50 प्रतिशत थी, 19 वीं सदी के अंत तक मात्र 15 प्रतिशत रह गयी। अंग्रेजों ने हस्तशिल्पियों के माल की बिक्री के लिए अलाभकारी कीमतें तय करके उन्हें भी बर्बाद कर दिया। खेती को भी तबाह किया गया, जिसके नतीजे में दो-दो महा अकाल देखने पड़े। इन अकालों के बीच ही एक अरब पौंड से ज्यादा रकम ब्रिटिश बैंकों में जमा हुयी। उपनिवेशवाद के दौर में ध्वंस की भयानकता को उजागर करने के लिए यही तथ्य काफी हैं, फिलहाल और विस्तार की आवश्यकता नहीं। 

दूसरा कारण आतंरिक था, जिसका आधार जाति की संरचना और उसे धर्मान्धता से जोड़ दिया जाना था। इसने भारत के बौद्धिक, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकास में जड़ता ला दी। अनुसन्धान तथा उत्पादक शक्तियों के विकास के पांवों में बेड़ियाँ डाल कर रख दीं। 
 
ये वे परिस्थितियां थीं, जिनमें 19वीं और 20वी सदी में  आधुनिकता को लाने के संघर्ष हुए ; गांधी उसके प्रतीक व्यक्तित्व हैं। एक बार फिर दोहराने में हर्ज नहीं कि उनके कामकाज की समीक्षा इन हालात की सीमा में रखकर ही की जा सकती है। यहां एक और पहलू ध्यान में रखना आवश्यक है और वह यह कि रासायनिक क्रिया की तरह ही सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया भी अनेक ऐसे आयामों को खोल देती है, जो जरूरी नहीं कि आपके चाहने के मुताबिक़ ही हो  -- सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया के गति आयाम वह सब भी करा देते हैं, जो इच्छा के बाहर, किन्तु जरूरी होता है। इस दौरान ऐसा भी बहुत कुछ हो जाता है, जिसे बहुत संभव है कि आप न चाहते हों। गांधी भी इसी तरह सामाजिक उथलपुथल के उदाहरण हैं। वे बहुत कुछ सायास कर रहे हैं, तो काफी कुछ अनायास भी कर रहे हैं।  

जैसे गांधी की असली भारत की कल्पना "हिन्द स्वराज" (1909) की किताब में हैं। इसमें उनके राजनीतिक लक्ष्य स्पष्ट नहीं हैं। जो हैं, वे काफी दुरूह और जटिल हैं। वे इस परिकल्पना से कभी असंबध्द नहीं हुए, मगर उसे पकड़ कर नहीं बैठे रहे ; समयानुकूल निर्णय लेते रहे। यही गांधी को व्यावहारिक बनाता है। 

इन परिस्थितियों में गांधी को :
(अ) आजादी हासिल करनी थी और 
(ब) उसके लिए भारत को जोड़ना था। सैकड़ों स्वतंत्र-अर्ध स्वतंत्र-स्वायत्त रियासतों वाले देश में साम्राज्यवादी राष्ट्रवाद से अलग किस्म के राष्ट्रवाद की, समावेशी राष्ट्रवाद (इन्क्लूसिव नॅशनलिज़्म) की चेतना विकसित करनी थी। 
(स) आधुनिकता लानी थी और सबसे बढ़कर यह सुनिश्चित करना था कि यह उथलपुथल सिर्फ संक्रमण तक ही सीमित रहे, क्रान्ति में नहीं बदल जाए। 

गाँधी की इस चिंता के पीछे सोवियत रूस में हुयी क्रांति और उसका विश्वव्यापी असर था। उनकी सारी कार्यनीतियां, अभियान की अनूठी पद्वत्तियाँ और  नूतन विधाएँ, जो यकीनन नई और मौलिक थीं, इन्ही लक्ष्यों को ध्यान में रखकर बनी। गांधी को समग्रता में समझना है तो इन सब आयामों और वस्तुगत  परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही समझा जा सकता है।

गांधी की कमजोरी ही उनकी ताकत

गांधी बेहद व्यावहारिक थे। "हिन्द स्वराज" उनकी पक्की धारणा और विज़न दस्तावेज था, मगर इसी के साथ वे उससे ठीक उलट कराची प्रस्ताव (1931) के भी साथ थे। गांधी इंग्लैंड के औद्योगिक विकास के सामाजिक परिणामों, मेहनतकशों के सामाजिक, आर्थिक, नैतिक अलगाव को देखकर आये थे, इसलिए वे श्रम सघन उद्योगों की बात करते हैं, जिनमे आर्टीजन, हस्तशिल्प को प्रोत्साहन मिले। वे भारतीय समाज की असाधारण विविधता की बात करते हैं। समुदायों, सम्प्रदायों के बीच आपस में गतिशीलता, संवाद और तादात्म्य की बातें करते हैं, इस तरह  जड़ता तोड़ते हैं।

 बुद्ध की तरह गाँधी की भी सीमा हैं। वे भी पीड़ा और वेदना को उजागर करते हैं, किन्तु उनका तर्कसंगत कारण या हल, निदान और समाधान प्रस्तुत नहीं करते। इस मामले में वे अस्पष्ट बने रहना ही चुनते हैं। यह गांधी की कमजोरी भी है और उनकी ताकत भी। उनकी यह स्थिति उनकी स्वीकार्यता को नयी ऊंचाई देती है। 

यह उनके दक्षिण अफ्रीकी अनुभव (जहां उन्होंने भारतीयों के साथ भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ी, किन्तु काले अफ्रीकियों के साथ हो रहे रंगभेद पर चुप्पी साधे रखी) का विस्तार था। लड़ाई वहीँ तक लड़ी जाए, जहां तक उसे बनाये रखते हुए आगे बढ़ाया जा सके। गांधी जनता की चेतना से बहुत ज्यादा आगे नहीं चलते थे। प्रैग्मेटिक गांधी का सूत्र वाक्य था : दबे को जगाओ, दबाने वाले को मनाओ!!

कट्टर धार्मिक, सनातनी और वर्णाश्रमी गांधी का उल्लेखनीय योगदान यह है कि उन्होंने महिलाओं, दलित मुक्ति, छुआछूत को उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का हिस्सा बनाया। यह सब तब किया, जब तिलक, मालवीय सहित ब्राह्मणवाद की हिमायती और हिन्दूसभाई सोच की नामवर हस्तियां कांग्रेस का स्थापित नेतृत्व थीं। 

किन्तु स्वयं गांधी शुरू से ऐसे नहीं थे - वे इवॉल्व होते-होते यहां तक पहुंचे थे। वर्णाश्रम को वे भारतीय समाज का आधार मानते थे। काठियावाड़ में वर्ष 1924 में हुए राजपूतों के सम्मेलन में वे भारत की अवनति की वजह "वर्णो द्वारा अपने लिए निर्धारित काम न करना" बताते हैं। तब वे ठोंक कर अंतर्जातीय विवाहों का विरोध करते हैं। जाति के अस्तित्व और जाति के भीतर ही वैवाहिक संबंधों की वकालत करते है। शूद्रों को अधिकार दिए जाने की मांग को लगभग धिक्कारते हुए इसी दौर में वे कहते हैं कि "जो इस तरह की मांग उठाते हैं, वे भारत के विकास के बारे में कुछ भी नहीं जानते, समझते।"

वे ही गांधी विकसित होते हुए खुद अपने आश्रम में दलित युवक और ब्राह्मण लड़की की शादी कराते हैं। पूना पैक्ट को लेकर कितनी भी बातें - ज्यादातर सही बातें - क्यों न की जाएँ, वे यही गांधी थे, जो यरवदा जेल के अपने अनशन से एक तरफ अलग निर्वाचक मंडल का विरोध करते हैं, वहीँ दूसरी तरफ छुआछूत के खिलाफ देश भर में एक लहर-सी उठा देते हैं। गांधी की यह लोचनीयता - फ्लैक्सिबिलिटी - संक्रमण को क्रान्ति तक न पहुँचने देने के मूल लक्ष्य के आसपास है। 

गांधी का कमाल यह था कि वे एक साथ सब को साध लिया करते थे। कांग्रेस सभी राजनीतिक धाराओं, विचारों, आग्रहों का साझा मंच बनी रही। गाँधी इस व्यापकता के महत्त्व को जानते थे, अपने सारे आग्रहों के बावजूद उन्होंने इसे बनाये रखने में हर चंद भूमिका निबाही। उस वक़्त के वैचारिक आकर्षण को ध्यान में रखते हुए वे कहते हैं : "मैं समाजवादी हूँ, मैं बोल्शेविक भी हूँ, मगर एम एन रॉय जैसा बोल्शेविक नहीं हूँ।" अगली ही साल 1925 में अपने अखबार यंग इंडिया में एम एन रॉय पर एक लेख छाप देते हैं।

इस प्रकार वे सांस्कृतिक आवागमन को प्रोत्साहित करते हैं।  नागरिक अधिकारों की जमकर हिमायत करते हैं।  1942 के भारत छोडो प्रस्ताव पर अलग राय रखने वालों को भी वे धिक्कारते नहीं है। उनके साहस को सराहते हैं। अम्बेडकर से लड़ते भी हैं, उनकी सराहना भी करते हैं। गांधी-टैगोर, गांधी-नेहरू, गांधी-आंबेडकर डिबेट्स असहमतियों के साथ निबाह के इसी लोकतांत्रिक विमर्श के उदाहरण हैं।

(लेखक पाक्षिक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 094250-06716)





No comments