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पुस्तक मेला की प्रासंगिकता (“बस्तर पुस्तक मेला” पर विशेष) - कौशलेंद्र

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कलम से : अंतरजाल के युग में ई. पुस्तकों की कमी तो नहीं फिर ऐसा क्या है कि भारत भर में पुस्तक मेलाओं का आयोजन आज भी बड़ी धूम-धाम से किया जाता...

कलम से : अंतरजाल के युग में ई. पुस्तकों की कमी तो नहीं फिर ऐसा क्या है कि भारत भर में पुस्तक मेलाओं का आयोजन आज भी बड़ी धूम-धाम से किया जाता है। अंतरजाल पर पाठ्यक्रम पढ़ने की अभ्यस्त होती जा रही नयी पीढ़ी के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है अतः इलेक्ट्रॉनिक युग में पुस्तक मेला की प्रासंगिकता को रेखांकित किया जाना समीचीन है। 

पहली बात तो यह कि पढ़ने के लिये आज भी पुस्तक ही सर्वाधिक सहज और निरापद साधन है। अंतरजाल के अत्याधुनिक संसाधनों के दीर्घकालीन उपयोग से निकलने वाला इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन मानव स्वास्थ्य के लिये बहुत बड़ी चुनौती बनकर उभर रहा है। इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन के बायोलॉज़िकल दुष्प्रभावों पर किए जा रहे अध्ययन हमें सावधान करते हैं। कदाचित, यह वैज्ञानिक संसाधनों के अयुक्तितियुक्त व्यवहार का अतिवाद है जिस पर स्वास्थ्य की दृष्टि से अंकुश लगाया जाना आवश्यक हो गया है। 
दूसरी बात यह कि साहित्य का आम पाठक धीरे-धीरे पुस्तकों से दूर होता जा रहा है। इसका कारण, जहाँ अंतरजाल की उपलब्धता के कारण पुस्तकों की सहज उपलब्धता का अभाव है वहीं आधुनिकता का वह वातावरण भी है जिसने हमें हमारी सहज परम्पराओं से दूर कर दिया है। 
तीसरी बात यह कि विभिन्न पाठ्यक्रमों से सम्बंधित पठन सामग्री और सुस्थापित साहित्यकारों की रचनायें तो अंतरजाल पर उपलब्ध हो जाती है किंतु दिनोदिन सृजित हो रहे साहित्य, भले ही वह अंतरजाल पर भी उपलब्ध हो, से आम पाठक परिचित नहीं हो पाता। पुस्तक आज भी ज्ञान एवं सूचनाओं के विस्तार का सर्वाधिक सुगम साधन है। भारत में गिरि-ग्राम्य बस्तर जैसे बहुत से क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ पाठक तो हैं किंतु न तो नवसृजित साहित्य है और न अंतरजाल की पर्याप्त सुविधा। पुस्तक मेला वह सहज स्थान है जहाँ पुस्तकों के भंडार की चुम्बकीय बीथिकायें पाठकों को आकर्षित करती हैं।
चौथी और महत्वपूर्ण बात हिन्दी साहित्य के विक्रय से सम्बंधित है। हर कोई चेतन भगत और शोभा डे जैसा भाग्यशाली नहीं होता जिन्हें पुस्तक लेखन की पेशगी रकम मिल जाया करती है। सुस्थापित साहित्यकारों की पुस्तकें तो हर कहीं उपलब्ध हैं किंतु पुस्तक मेले में उन क्षेत्रीय रचनाकारों की पुस्तकें भी उपलब्ध हो जाया करती हैं जो अपनी पुस्तकों के लिये कभी बाजार नहीं खोज पाते। बस, यूँ समझिये कि दिल्ली में लगने वाले अंतरराष्ट्रीय मेले में तो आपको एक से एक स्वादिष्ट पकवान मिल जायेंगे किंतु “अँगुरी में डँसिले बिया नगिनिया हो” सुनते-सुनते लिट्टी-चोखा खाने के लिये तो आपको सोनपुर के ग्रामीण मेले में ही जाना होगा। 
...और पाँचवी बात यह कि पुस्तक मेला केवल पुस्तकों और प्रकाशकों का ही मेला नहीं होता बल्कि वहाँ तो साहित्यकारों का भी मेला होता है। यह वह सुअवसर होता है जो दूरदराज के खाँटी साहित्यकारों को शहरी साहित्यकारों से और साहित्यकारों को विभिन्न प्रकाशकों से मिलने के लिये आमंत्रित करता है। पुस्तक मेले के मंच पर होने वाली साहित्यिक सम्भाषाओं से लेखन की निरंतरता के लिये ऊर्जा का प्रवाह और भी सुगम होता है।   
पुस्तक मेला के सम्बंध में हमने मोतीहारी वाले मिसिर जी से भी चर्चा की, वे बोले– “एक समय वह भी आयेगा जब हमें विवश होकर सभी पुरातन और देशज परम्पराओं एवं संसाधनों की ओर वापस आना होगा, बेहतर होगा कि हम अपने पुरातन संसाधनों को बचा कर रखें, उन्हें किसी भी स्थिति में मरने न दें। हमें तो आज भी पुस्तक पढ़ने में जो सहजता और आत्मीयता का अनुभव होता है वह अंतरजाल में नहीं हो पाता। हम और पुस्तकें, दोनों ही अन्योन्याश्रय भाव से एक-दूसरे की जीवंतता को बनाये रखते हैं।"

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