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उप्र चुनाव : पब्लिक भाजपा को माफी देगी या उससे माफी मांगेगी(आलेख : राजेंद्र शर्मा)

पूर्वी उत्तर प्रदेश में सोनभद्र जिले के अंतर्गत, रॉबर्ट्सगंज विधानसभाई क्षेत्र की भाजपा की एक अनोखी जनसभा का वाइरल हुआ वीडियो, चंद सैकेंडों ...


पूर्वी उत्तर प्रदेश में सोनभद्र जिले के अंतर्गत, रॉबर्ट्सगंज विधानसभाई क्षेत्र की भाजपा की एक अनोखी जनसभा का वाइरल हुआ वीडियो, चंद सैकेंडों में जिस तरह से उत्तर प्रदेश के इस विधानसभाई चुनाव की और उसमें भी सब से बढ़कर सत्ताधारी भाजपा की दुर्दशा की कहानी कह देता है, उसे हजारों शब्दों में भी बयान नहीं किया जा सकता है। फिर भी, वीडियो में दर्ज हुआ दृश्य जिस तरह, गागर में सागर भरने के अंदाज में, एक संक्षिप्त से चल-दृश्य में इस पूरे चुनाव की कहानी सुना देता है, उसका जिक्र करने के लोभ से बचना मुश्किल है। वीडियो में, राबर्ट्सगंज विधानसभाई क्षेत्र के भाजपा विधायक और वर्तमान चुनाव में फिर से मैदान में उतारे गए भाजपा उम्मीदवार, भूपेश चौबे विधायक के रूप में अपने पांच साल के काम-काज पर लोगों की शिकायतों, नाराजागियों तथा असंतोष के जवाब में, जनसभा के मंच पर ही क्षमायाचना की मुद्रा में कान पकड़कर उठक-बैठक लगाते नजर आते हैं।
खासे लंबे भूपेश चौबे, जब मंच पर अचानक कान पकड़कर उठक-बैठक करना शुरू करते हैं, मंच पर उपस्थित दूसरे भाजपा नेता हैरान होकर, शुरू में उन्हें रोकने की कोशिश भी करते हैं। लेकिन, जल्द ही यह उन्हें अपना क्षमायाचना का स्वांग कम से कम इतना लंबा करने के लिए छोड़ दिया जाता है कि पूरे क्षेत्र तक, उनके पांच साल की भूल-चूकों के लिए क्षमा मांगने का संदेश पहुंच जाए।
चुनाव के मौके पर मतदाताओं की शिकायतों के जवाब में क्षमायाचना की मुद्रा का सहारा लिए जाने का यह प्रहसन, सिर्फ भूपेेश चौबे या फिर से चुनाव मैदान में उतरे उनके जैसे पूर्व-विधायकों तक ही सीमित नहीं है। उल्टे, भूपेश चौबे प्रहसन इसीलिए विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि वह इस चुनाव में सत्ताधारी संघ-भाजपा जोड़ी की ही दशा का प्रतिनिधित्व करता है। वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी समेत ऊपर से लेकर नीचे तक समूचा भाजपा नेतृत्व कम से कम उप्र में मतदान के तीसरे चरण के बाद से, बदहवासी के उस मुकाम पर पहुंच चुका है, जहां वह डूबते को तिनके का सहारा के अंदाज में, चुनावी इस्तेमाल के लिए सामने पड़ने वाली हर चीज को आजमा रहा है और किसी न किसी रूप में क्षमायाचना की मुद्रा का सहारा लेता नजर आ रहा है।
इन क्षमायाचना मुद्राओं में आवारा मवेशियों के मुद्दे पर, खुद प्रधानमंत्री की क्षमायाचना खासतौर पर उल्लेखनीय है। यह दूसरी बात है कि जिन प्रधानमंत्री मोदी ने, किसानों के साल भर से लंबे ऐतिहासिक आंदोलन के सामने घुटने टेकते हुए, तीन कृषि कानूनों को वापस लेते हुए भी, इन कानूनों को बनाने की गलती स्वीकार करने तथा उसके लिए किसानों से माफी मांगने के बजाए, आंदोलनकारी किसानों को इन कानूनों के फायदे समझाने में अपनी ''तपस्या की कमी'' के लिए पछतावा जताया था, उनसे आवारा पशुओं के संकट समेत और किसी भी मामले में, खुलकर गलती मानने की उम्मीद तो की ही कैसे जा सकती है? फिर भी, तीसरे चरण में चुनाव के मध्य-उत्तरप्रदेश में प्रवेश के साथ जब यह स्पष्ट हो गया कि सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा रुहेलखंड में ही नहीं, भाजपाविरोधी हवा पूरे उत्तर प्रदेश में तथा खासतौर पर देहात में चल रही है और जब संघ-भाजपा के सारे मीडिया मैनेजमेंट के बावजूद, मीडिया के खासे बड़े हिस्से में इस आशय की खबरें आने लगीं कि देहात में भाजपा के वोट का अच्छा खासा हिस्सा आवारा मवेशी चरते नजर आ रहे हैं, तो शीर्ष से खुद प्रधानमंत्री चौथे चरण के मतदान के लिए अपनी चुनाव सभाओं में, किंचित शिष्ट तरीके से भूपेश चौबे वाली कसरत करते नजर आए। बेशक, सत्ताधारी पार्टी का ध्यान इस समस्या के आकार की ओर खींचने के लिए कुछ जगहों पर, मुख्यमंत्री समेत शीर्ष भाजपा नेताओं की जनसभाओं के प्रवेश द्वारों तक सांड अपनी मौजूदगी भी दर्ज करा चुके थे।
भाजपा की डबल इंजन सरकारों की आम तौर पर और यूपी की मोदी-योगी की डबल इंजन सरकार की खासतौर पर जैसी दंभपूर्ण मुद्रा रही है, उसको देखते हुए भाजपा के प्रचार में दूसरी सभी समस्याओं की तरह, आवारा मवेशियों की समस्या का स्वीकार किया जाना कोई आसान नहीं था। सचाई यह है कि उप्र की योगी सरकार तो न सिर्फ ऐसी किसी समस्या की मौजूदगी से ही इंकार करती आ रही थी, बल्कि एक प्रकार से इस समस्या को अपनी विचारधारात्मक निष्ठा के तमगे के रूप में ही देखती और दिखाती आ रही थी। आखिरकार, आवारा मवेशियों की समस्या का तेजी से बढ़ना, उसके गोवंश ही नहीं, तमाम मवेशियों की ''रक्षा'' करने के कानूनी-गैरकानूनी, हर प्रकार के प्रयासों की ''सफलता'' का ही तो जीता-जागता सबूत था!
अचरज नहीं कि किसानों के आवारा मवेशियों की अपनी परेशानी बार-बार उठाने के बावजूद, उप्र की डबल इंजन सरकार ने इस सचाई का नोटिस तक लेने की कोई जरूरत नहीं समझी कि जहां देश भर में आवारा या छुट्टा मवेशियों की संख्या में 2012 से 2019 के बीच 3.2 फीसद की कमी हुई थी, उत्तर प्रदेश में ऐसे मवेशियों की संख्या में पूरे 17 फीसद की बढ़ोतरी हुई थी। खुद सरकार की रिपोर्ट के अनुसार, 2019 तक ही ऐसे पशुओं की संख्या,11.8 लाख तक पहुंच चुकी थी। इसी से जुड़ी विडंबना यह कि उसी उत्तर प्रदेश में, जो खुद सरकारी सूचकांकों के अनुसार, तमाम सामाजिक मानकों के मामले में देश के सभी राज्यों में सबसे निचले पायदान पर है और जो खुद मोदी सरकार के बहुआयामी गरीबी सूचकांक पर, देश भर में सबसे खराब स्थिति को दर्शाता है, हरेक व्यक्ति पर डबल इंजन की भाजपा सरकार जितना पैसा खर्च करती है, उससे कहीं ज्यादा खर्चा वही सरकार हरेक गाय पर करती है!
हैरानी की बात नहीं है कि चालीस फीसद से ज्यादा चुनाव निकल जाने के बाद, खुद प्रधानमंत्री को ही छुट्टा पशुओं की समस्या के वास्तविक होने की बात अपनी चुनाव सभाओं में स्वीकार कर, चुनाव प्रचार के बीच 'दिशा-सुधार' की शुरूआत करनी पड़ी। यह दूसरी बात है कि मोदी ने इस किसान बहनों-भाइयों की ''परेशानी'' को स्वीकार करते हुए भी और इसका दावा करते हुए भी कि उनकी सरकार ने इस परेशानी का उपचार भी खोज लिया है, चुनाव पाबंदियों की आड़ लेते हुए, इसका कोरा आश्वासन देना ही काफी समझा कि 10 मार्च को मतगणना के बाद, इसका समाधान हो जाएगा। लेकिन, जल्द ही एक ओर इस कोरे आश्वासन में कुछ वजन पैदा करने के लिए और दूसरी ओर, संघ-भाजपा की हिंदुत्ववादी-गोरक्षावादी निष्ठाओं के प्रति वफादारी जताते हुए और लोगों को कुछ भी कहकर बहलाने की अपनी क्षमताओं में अगाध विश्वास का प्रदर्शन करते हुए, प्रधानमंत्री ने गोबर से सोना पैदा करने का और इस तरह छुट्टा पशुओं को नोट छापने की मशीनें बनाने का सपना भी चलाने की कोशिश की। यह दूसरी बात है कि उप्र में इस सपने के खरीददार तो शायद ही मिलेें, हां इसके सहारे क्षमायाचना को कुछ ज्यादा सम्मानजनक जरूर बनाया जा सकता है।

वैसे खुद प्रधानमंत्री को उप्र चुनाव में सिर्फ आवारा पशुओं के मुद्दे पर ही ऐसी भूल-सुधार की मुद्रा में नहीं देखा जा रहा है। इसी प्रकार, उप्र में चुनाव के उत्तरार्द्घ में अपने प्रचार में प्रधानमंत्री को कथित राजनीतिक परिवारवाद के खिलाफ अपने आक्रामक पैंतरों से बचाव की मुद्रा में जाते देखा जा सकता है। सभी ने देखा है कि किस तरह उत्तर प्रदेश में इस चुनाव में भाजपा के मुख्य प्रतिद्वंद्वी, समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाले मोर्चे के लिए, मुस्लिम अल्पसंख्यकों के संभावित समर्थन को निशाना बनाकर, तरह-तरह से उसे हिंदू-विरोधी बनाकर पेश करने की कोशिश की जाती रही है। उसे माफियावादी, दंगावादी आदि-आदि बताना उसी का हिस्सा है। खुद प्रधानमंत्री मोदी ने इस हमले को झूठी सैद्घांतिक आभा देने के लिए इसमें परिवारवाद पर हमला और जोड़ दिया। इसमें बड़े सुविधाजनक तरीके से उन्होंने खुद भाजपा में बड़ी संख्या में राजनीतिक परिवारों को मान्यता दिए जाने तथा आगे बढ़ाए जाने का बचाव कर लिया। बहरहाल, उप्र में जब खुद मोदी-योगी को घर-परिवार वालों की तकलीफें समझने में असमर्थ होने की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा, मोदी को फौरन इस आक्रामण के जरिए बचाव के रास्ते से इससे पांव खींचने पड़े हैं कि परिवारवादी भी कहां घर-परिवारवालों की तकलीफें पहचानते हैं!
बेशक, इस सब के बीच संघ-भाजपा अपनी हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक तुरुप को बार-बार नाकाम होते हुए देख रहे हैं, फिर भी उसे पत्ता बदलकर बार-बार चला रहे हैं। इसी क्रम में अपने हिसाब से एक बहुत ही स्मार्ट चुनावी सांप्रदायिक पैंतरे को आजमाते हुए, अमित शाह ने सार्वजनिक रूप से एलान कर दिया कि बसपा इस चुनाव में भी मुसलमानों का, दलितों का वोट हासिल करने जा रही है। उनके सुर में सुर मिलाते खुद मायावती समेत बसपा नेताओं ने शाह के बयान की प्रशंसा की है। इससे, इस चुनाव में बसपा की भूमिका व चुनाव के बाद की स्थिति में उसकी भाजपा-अनुकूल भूमिका की अटकलों को छोड़ भी दें तब भी, इतना तो साफ ही है कि भाजपा इस ज्यादा से ज्यादा दो-ध्रुवीय होते गए चुनाव को, तीन या उससे भी ज्यादा ध्रुवीय बनाने में विशेष दिलचस्पी ले रही है। अमित शाह का बयान विशेष रूप से मुस्लिम वोट में उल्लेखनीय विभाजन सुनिश्चित करने के लिए, उनके हाथ-पांव मारने को दिखाता है। हां! अमितशाह उसी सांस में 'अब सिर्फ बजरंग बली' का एलान करना भी नहीं भूलते हैंइस बीच प्रधानमंत्री मोदी ने, उप्र के चुनाव के अंतिम चरणों के प्रचार के लिए, बनारस में डेरा डालने का एलान किया है। दूसरी ओर, प्रधानमंत्री खुद बड़ी ढिठाई से, कोरोना के संकट के बीच सरकारी खजाने से राशन आदि की बहुत ही मामूली मदद को मोदी का 'अन्न' व 'नमक' खाना कहे जाने पर न सिर्फ गदगद हो रहे हैं, बल्कि ऐसा माने जाने को ही पूरी 'प्रजा' लिए आदर्श की तरह स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन, उनके दुर्भाग्य से सरिता भदौरिया का वीडियो गवाह है कि राशन का एहसान भी काम नहीं कर रहा है। उधर, राजनाथ सिंह सरकारी भर्तियों में 'होगी-होगी' के बार-बार आश्वासन दे रहे हैं। अब जब और कुछ भी नहीं चल रहा है, तो क्या माफीनामा चलेगा?


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