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'आपदा में अवसर' का भौंडा तमाशा (आलेख : राजेंद्र शर्मा)

कलम से : कोविड की महामारी के संकट के बीच प्रधानमंत्री मोदी ने 'आपदा में अवसर' खोजने-बनाने का जो आह्वान किया था, उसके पूरे अर्थ अभी ...

कलम से : कोविड की महामारी के संकट के बीच प्रधानमंत्री मोदी ने 'आपदा में अवसर' खोजने-बनाने का जो आह्वान किया था, उसके पूरे अर्थ अभी खुल ही रहे हैं। फिर भी यूक्रेन-रूस युद्घ के बीच फंस गए करीब बीस हजार भारतीयों को, जिनमें से अधिकांश खारकीव, कीव, सुमी आदि यूक्रेन के प्रमुख शिक्षा केंद्रों में मेडीकल व अन्य विषयों के छात्र हैं, सुरक्षित निकालकर स्वदेश लाने के संकट को, मोदी सरकार ने जिस तरह सीधे-सीधे अपने दलगत व निजी राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने का औजार बनाया है, उसने ''आपदा में अवसर'' का नया ही अर्थ खोल दिया है।



बेशक, कोविड आपदा की ही तरह, यूक्रेन में फंसे भारतीय छात्रों की इस आपदा को अवसर में बदलने का यह खेल, देश के शासन के नाते इस संकट को संभालने में मोदी निजाम से जो कुछ करने की सामान्यत: अपेक्षा की जाती थी, उसे करने में इस सरकार की घोर विफलता को ढांपने के लिए भी है। यह दूसरी बात है कि अंतत: इन छात्रों की घर वापसी को भी एक भोंडे तमाशे में तब्दील करने और इसके लिए अपने मंंत्रिमंडलीय सहयोगियों से लेकर सैन्य उच्चाधिकारियों तक को, वापस आते छात्रों का फूल देकर तथा उनसे प्रधानमंत्री के जैकारे लगवा कर स्वागत करने के लिए तैनात करने में अपना पूरा जोर लगाने के बावजूद, मोदी सरकार अपने कथित ऑपरेशन गंगा के, युद्घग्रस्त क्षेत्र से भारतीयों के ''इवैकुएशन'' यानी बचाकर निकाले जाने का ऑपरेशन होने पर ही ज्यादा से ज्यादा मुखर होते सवालों को दबा नहीं पाई है।


अचरज नहीं कि इस कथित बचाव ऑपरेशन के तहत स्वदेश पहुंचे बच्चों ने, मंत्रियों आदि के सारे कोंचने के बावजूद, मोदी का जैकारा लगाने के प्रति स्पष्ट अनिच्छा ही नहीं दिखाई है, उनमें से अनेक ने स्पष्ट रूप से यह भी पूछा है कि जब उन्हें खारकीव तथा कीव आदि से, पश्चिम की ओर पड़ते यक्रूेन के पड़ोसी देशों की सीमाओं तक अपने ही उपायों से पहुंचने के लिए छोड़ दिया गया था, तो इसे रैस्क्यू किस तर्क से कहा जा रहा है। सीमा पार कर पोलैंड, हंगरी, रूमानिया आदि की सीमाओं में पहुंच जाने के बाद, विमान से भारत तक तो वे व्यापारिक उड़ानों के जरिए भी आ सकते थे! और तो और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में अंतिम चरण के चुनाव के लिए वाराणसी में अपने प्रवास के दौरान, जब यूक्रेन से लौटे बनारस केे तथा उत्तर प्रदेश में अन्य स्थानों के छात्रों को मुलाकात करने के लिए बुलाया, अपने सामान्य तरीके के विपरीत उन्हें भी यह स्वीकार करना पड़ा कि यूक्रेन में फंस गए छात्रों को जिन मुश्किलों का सामना करना पड़ा, उनकी वजह से कुछ छात्रों ने नाराजगी जताई है और मोदी तक से नाराजगी जताई है! उनकी नाराजगी को समझा जा सकता है। हालांकि, इसके साथ ही प्रधानमंत्री यह जोड़ना नहीं भूले कि बाद में जब उनका गुस्सा ठंडा हो जाएगा और उनकी भी समझ में आ जाएगा कि सरकार ने कितना बड़ा काम किया है, तो वे भी सरकार की सराहना करेंगे।


कहने की जरूरत नहीं है कि अंतत: स्वदेश पहुंचने वाले बच्चों का विमान से उतरने से पहले मंत्रियों को भेजकर स्वागत कराने से लेकर, सरकारी खर्च पर उन्हें फौजी विमानों समेत, विभिन्न निजी विमान सेवाओं से स्वदेश वापस लाने और चार केंद्रीय मंत्रियों को इन छात्रों का निकलना सुगम करने के लिए यूक्रेन से लगती सीमाओं वाले देशों में भेजने तथा विमान सेवाओं के फेरे उल्लेखनीय ढंग से बढ़ाने की जो सक्रियता बाद में दिखाई गई है, उसमें युद्घरत देश में फंसे नागरिकों को सुरक्षित निकालने की गंभीर कोशिश कम लगती है और समय पर जरूरी सक्रियता दिखाने में भारी चूक पर, पर्दा डालने के लिए नाटकबाजी ही ज्यादा नजर आती है।


यह नरेंद्र मोदी का अपने शासन की बड़ी विफलताओं को ढांपने का सामान्य तरीका ही है। यह सरकार कमजोरी को पहचान कर तथा किसी न किसी तरह स्वीकार कर, उसे दूर करने में जुटने की जगह, हैडलाइन मैनेजमेंट के जरिए, इन कमजोरियों से हुई लोगों की वास्तविक तकलीफों को ढांपने बल्कि नकारने में ही विशेष सक्रियता दिखाती है। कोविड की पहली लहर के दौरान, अचानक पूर्ण लॉकडाउन के जरिए पूरे देश को बंद कर देने के जरिए तथा दूसरी लहर के दौरान, आक्सीजन, बैडों व दवाओं की भारी तंगी और मौतों की बहुत भारी संख्या को नकारने के जरिए ठीक यही किया गया था और अब यूक्रेन में भारतीय छात्रों के संकट के दौरान भी, यही किया जा रहा है।


याद रहे कि पहली बार, 15 फरवरी को ही यूक्रेन स्थित भारतीय दूतावास ने यह एडवाइजरी जारी की थी कि हालात को देखते हुए जिन छात्रों का रुका रहना आवश्यक या इसेंसियल नहीं है, वे यूक्रेन छोड़ने पर विचार कर सकते हैं। एडवाइजरी में पर्याप्त अर्जेंसी न दिखाए जाने के बाद भी, अगले ही दिन तक दूतावास के संज्ञान में आ चुका था कि जो भी फ्लाइटें हैं, पूरी बुक हो चुकी हैं और सीधी फ्लाइट सिर्फ एक है और वह भी हर रोज नहीं है और इस स्थिति में निकलना चाह रहे छात्रों के लिए भी निकलना मुश्किल है। इसके बाद,18 फरवरी को ही एअर इंडिया की तीन विशेष उड़ानों का ऐलान किया गया और वह भी क्रमश: 22, 24 तथा 26 फरवरी के लिए। जाहिर है कि कीव से लेकर दिल्ली तक, यूक्रेन से निकलने की बहुत अर्जेंसी महसूस नहीं की जा रही थी। ये उड़ानें भी फौरन ही पूरी बुक हो गईं।


छात्र एक ओर और ज्यादा उड़ानों का अनुरोध कर रहे थे, तो दूसरी ओर बहुत से छात्र इस पर निराशा जता रहे थे कि इन उड़ानों में टिकट तीन गुना कर के 60 हजार रुपए कर दिया गया था, जोकि अनेक छात्रों के लिए बहुत ज्यादा था। इसके बाद 20 फरवरी को दूसरी एडवाइजरी में आमतौर पर सभी छात्रों को निकल जाने की सलाह दी गई और 22 फरवरी को तीसरी एडवाइजरी में शिक्षा संस्थाओं के अनुमोदन का इंतजार न कर के निकल जाने की। इसी रोज एअर इंडिया की पहली उड़ान 242 भारतीयों को लेकर निकली। इसी बीच 25 और 27 फरवरी के लिए एअरइंडिया की तीन और उड़ानों की घोषणा हो चुकी थी। लेकिन, 24 फरवरी को यूक्रेन की एअरस्पेस बंद कर दिए जाने से एअरइंडिया की उड़ान को दिल्ली वापस लौट आना पड़ा और यूक्रेन से उड़ानों के निकलने का सिलसिला रुक गया। और रूस का हमला शुरू होने के बाद कीव, खारकीव, सुमी आदि में भारतीय छात्रों को, अपने साधनों से विभिन्न बार्डरों तक पहुंचने की सलाह देकर छोड़ दिया गया।


इन छात्रों को निकालकर सीमाओं तक पहुंचाने का कोई व्यवस्थित प्रयास किया जाना तो दूर, किसी प्रकार सीमाओं तक पहुंचने वालों को मदद मुहैया कराने की भी कोई व्यवस्था नहीं की गई। नतीजा यह हुआ कि पहले कई दिन, थके-हारे, भूखे-प्यासे, सीमा तक पहुंचे भारतीय छात्रों को शून्य से कम तापमान में, दो-दो रात खुले आसमान के नीचे रुकना पड़ा और भारतीय अधिकारियों की अनुपस्थिति के चलते, नस्ली भेदभाव से लेकर यूक्रेनियाइयों की खिसियाहट भरी नाराजगी तक का भी सामना करना पड़ा। हजारों छात्रों की तकलीफों के वीडियो वाइरल होने के बाद और दूसरी ओर, पहले कीव तथा फिर खारकीव में शाम तक किसी भी तरह शहर छोड़कर निकल जाने की भारतीय दूतावास की एडवाइजरी आने तथा कीव में दूतावास बंद कर दिए जाने के बाद ही, दिल्ली में बैठी सरकार की सक्रियता, प्रधानमंत्री द्वारा उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के बीच-बीच में ली जा रहीं उच्चस्तरीय बैठकों से आगे, मंंत्रियों को यूक्रेन के सीमावर्ती देशों में भेजे जाने तथा वहां से अतिरिक्त उड़ानों की व्यवस्था किए जाने की ओर, आगे बढ़ी।


लेकिन, इस सिलसिले की पहली विशेष उड़ान के भारत पहुंचने तक ही, प्रधानमंत्री मोदी उत्तर प्रदेश में अपने चुनाव प्रचार में भारतीयों को निकालकर स्वदेश वापस लाने के अपने 'कारनामे' को भुनाने की कोशिश शुरू कर चुके थे। 2 मार्च को सोनभद्र में अपनी चुनाव सभा में प्रधानमंत्री ने न सिर्फ इसका दावा किया कि भारत 'यूक्रेन से अपने नागरिकों को बचाकर निकालने में कामयाब' रहा है, जबकि वास्तव में इसकी शुरूआत भर हो पाई थी, उन्होंने इस कामयाबी के लिए यह कहकर खुद अपनी पीठ भी ठोक ली कि यह 'भारत की बढ़ती ताकत का ही नतीजा है', जो कि जाहिर है कि मोदी का ही कारनामा है!


वैसे मोदी के उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रचार में यूक्रेन की एंट्री तो चौथे दौर के चुनाव प्रचार से ही हो गई थी, जब यूक्रेन पर युद्घ के बादल घिरने लगे थे। लेकिन, तब तक प्रधानमंत्री युद्घ की आशंकाओं का इस्तेमाल, उत्तर प्रदेश में अपने और योगी के 'मजबूत' प्रशासन के जरूरी होने की दलील के तौर पर ही करने की कोशिश कर रहे थे। अब वे 'भारत की बढ़ी हुई ताकत' के श्रेय का दावा करने तक पहुंच गए हैं और 'नागरिकों को बचाकर निकालने' की कामयाबी की नुमाइश के नीचे, हजारों भारतीय छात्रों की उन वास्तविक तकलीफों को दफ्न ही कर देना चाहते हैं, जो बेशक युद्घ के हालात के चलते पैदा हुई हैं, लेकिन जिन्हें बढ़ाने में हमारी मौजूदा सरकार की विफलताओं का भी खासा भारी योगदान रहा है। जबकि पहले भी विभिन्न सरकारों ने, इससे कई-कई गुना बड़े पैमाने पर और बिना-किसी शोर-शराबे के, अपना न्यूनतम कर्तव्य मानते हुए यही जिम्मेदारी पूरी की है।


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और 'लोकलहर' के संपादक हैं।)

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