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इतनी चौड़ी छाती वीरों की : राजेंद्र शर्मा

कलम से : विपक्ष वालो‚ अब मानने से किस मुंह से इनकार करोगे। हमारे हिस्से में सचमुच छप्पन इंच की छाती आई है। वर्ना श्रीलंका हमसे क्या दूर हैॽ ...

कलम से : विपक्ष वालो‚ अब मानने से किस मुंह से इनकार करोगे। हमारे हिस्से में सचमुच छप्पन इंच की छाती आई है। वर्ना श्रीलंका हमसे क्या दूर हैॽ बस राम सेतु जितना ही तो जाना है। पर श्रीलंका वाली आफत हमारे आस–पास भी कहीं आई क्याॽ तेल के दाम तो हमारे यहां भी बढ़ रहे हैं‚ पर प्राब्लम जरा सी भी नहीं है। सब चंगा सी। और पाकिस्तान‚ उसके लिए तो किसी सेतु पर भी नहीं चढ़ना है‚ बस बार्डर पार किया और पहुंचे। पर मजाल है जो उधर के संकट की आंच तो क्या, जरा सी गर्मी भी इस पार आई हो। नाम के वास्ते अविश्वास प्रस्ताव तक नहीं। यह छप्पन इंच का करिमा नहीं तो और क्या हैॽ 



पर एक बात समझ में नहीं आई। श्रीलंका वाले तो चलो फिलहाल हमारी देखा–देखी अपनी छाती फुला रहे हैं और हम भी बड़ा भाई बनकर दिखा रहे हैं। सो बंदे अपने संकट के मामले में आत्मनिर्भर हुए पड़े हैं यानी उन्हें लोकल के अलावा किसी इंटरनेशनल खलनायक की दरकार ही नहीं है। पर इमरान खान को तो विदेशी हाथ की जरूरत थी। जरूरत भी क्या थी‚ बाकायदा अगले ने विदेशी हाथ‚ पांव‚ सिर‚ सब खोज निकाला है। और विदेशी हाथ की जरूरत बढ़ती गई‚ जैसे–जैसे गिनती छोटी पड़ती गई। तब भी इमरान मियां ने विदेशी हाथ खोजा भी तो कहांॽ बगल में छोरा‚ पर जग में ढिंढोरा। नये इंडिया की तरफ देखा तक नहीं। क्रिकेट की हमारी इतनी पुरानी और पक्की रकबत तक का लिहाज नहीं किया। सात समंदर पार‚ अमेरिका में पहुंच गए विदेशी हाथ की तलाश में।


हम तो दक्षिण एशिया की आत्मनिर्भरता का ख्याल कर के अपने यहां कुछ भी हो, पाकिस्तान का हाथ खोजते हैं और इमरान को एक बार भी हमारे हाथ का ख्याल नहीं आया। भाई सीधे अमरीका पहुंच गया। हमारे छप्पन इंच का क्या फायदाॽ पड़ोसी तक खतरा मानने को तैयार नहीं हैं। सच्ची‚ बड़ी बेइज्जती की बात है भाई! फिर भी‚ हमारी छाती छप्पन इंची साबित होना‚ पड़ोसियों के खतरा मानने के ही भरोसे थोड़े ही है। अपने राम इसमें भी आत्मनिर्भर हो लिए हैं।


नौकरी‚ महंगाई‚ पढ़ाई‚ दवाई किसी से कोई फर्क नहीं पड़ता है‚ सरकार तो सरकार पब्लिक को भी नहीं। बस हिंदू–हिंदू होती रहनी चाहिए। इससे बज्जर छाती क्या होगीॽ 


व्यंग्य : राजेन्द्र शर्मा



(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और 'लोकलहर' के संपादक हैं।)

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