"कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा?" डायलॉग हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी के प्रिय फ़िल्मी संवादों में से एक है। वे इसे एकाधिक बार दोहर...
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"कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा?" डायलॉग हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी के प्रिय फ़िल्मी संवादों में से एक है। वे इसे एकाधिक बार दोहरा चुके हैं। पिछले दिनों कर्नाटक की उनकी पार्टी - भाजपा - ने इस डायलॉग को अपडेट किया है। अब यह "ईश्वरप्पा ने संतोष पाटिल को क्यों मारा?" में बदल गया है। यहां हमारा इरादा सिर्फ क्यों मारा (आत्महत्या के लिए मजबूर करना भी एक तरह से मारा जाना ही होता है) तक नहीं है। जिसे मारा, वह कौन था, पर भी है।
संतोष पाटिल कर्नाटक के बेलगावी जिले के अपेक्षाकृत युवा ठेकेदार थे। उनकी समस्या यह थी कि कर्नाटक के मंत्री के एस ईश्वरप्पा 4 करोड़ रुपयों के पूरे हो चुके सरकारी काम के बिल का भुगतान दबाये बैठे थे। इस बिल को पास करने के लिए 40 प्रतिशत कमीशन की मांग कर रहे थे। इस बात की शिकायत संतोष ने बाकी सबके साथ ऊपर तक, यानि ईश्वरप्पा के ब्रह्मा जी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी की थी। मगर इससे समस्या सुलझने की बजाय और उलझ गयी। कर्नाटक के इस मंत्री ने अपने सारे भेड़िये उसके पीछे लगा दिए। मानहानि का मुकद्दमा भी ठोंक दिया। अंततः हारे निराश संतोष पाटिल ने उडुपी के लॉज से आख़िरी व्हाट्सप्प मेसेज में ईश्वरप्पा को अपनी मौत का जिम्मेदार बताते हुए 14 अप्रैल को आत्महत्या कर ली।
भाजपाई भ्रष्टाचार के बारे में बात करना फालतू में समय को जाया करना होगा। भाजपा ने घपलों और घोटालों, बेईमानियों और काली कमाईयों के सकल ब्रह्माण्ड के अब तक के सारे रिकॉर्ड ही नहीं तोड़े हैं बल्कि उसके नए-नए जरिये, हर संभव-असंभव रास्ते तलाश कर इस विधा में उतरने को आमादा और तत्पर आगामी पीढ़ी के प्रशिक्षुओं के लिए अनगिनत रास्ते भी खोले हैं।
एक प्रचलित लोकोक्ति को थोड़ा बदल कर कहें तो "जहां न पहुंचे आज तक के भ्रष्टाचारी कभी / वहां भी पहुँच गए भाजपाई ऊपर से नीचे तक सभी।" इस मामले में इनकी आविष्कारी अनुसन्धानी क्षमता कमाल ही है। उन्होंने हिमालय फतह ही नहीं किये - एवरेस्ट की चोटी से भी ऊंची नई-नई चोटियां खड़ी भी की हैं। इनमें से कुछ पर ही नजर डालने से यह नूतनता और मौलिकता उजागर हो जाती है। जैसे कोरोना दौर में कुछ लोग जीवन रक्षक दवाओं की कालाबाजारी करके कमा रहे थे। मगर जो सबने किया, वह किया, तो क्या किया -- इसलिए भाजपा और संघी नकली दवाईयां कालाबाजार में बेचकर उनसे ज्यादा कमाई करने में जुट गए थे।
ऐसा करके वे "बेईमानी में भी एक तरह की ईमानदारी होती है", कि "चोर, डाकुओं का भी कुछ ईमान होता है" आदि के फालतू मुगलकालीन मिथक तोड़ रहे थे। एक मिथक यह भी था कि इस तरह के उद्यमी कम-से-कम भगवान को तो बख्श देते हैं। उन्हें अपनी उद्यमशीलता का शिकार नहीं बनाते। ऐसा होता भी रहा। हमारे चम्बल में पुराने जमाने के डकैत सारी जोखिमें उठाकर मंदिरों पर घंटा चढाने जाते थे। भाजपाईयों ने चढ़े-चढ़ाये घंटों को उतारने की असाधारण करतूतें दिखाकर उन सबको पीछे छोड़ दिया ।
इस कर्मकांडी मिथ्याभास को भी तोड़ा और सिंहस्थ और कुम्भ के मेलों से लेकर अयोध्या के राम मंदिर तक में अपनी कमाई के जरिये ढूंढ निकाले। इस तरह उन्होंने जहां एक तरफ कबीर साब के कहे कि : "राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट / अंत काल पछतायेगा, जब प्राण जायेंगे छूट" को चरितार्थ कर दिखाया, वहीँ दूसरी तरफ "कण कण में हैं भगवान" को नयी तरह से परिभाषित कर आध्यात्मिक विमर्श की धारा को नयी दिशा में प्रवाहमान किया।
ऐसा करते में वे भाषा और शब्दकोष को समृद्ध करने का काम करना भी नहीं भूले। 'भ्रष्टाचार' शब्द बासी पड़ गया था। भाईयों ने उसे "व्यापमं" का संबोधन देकर व्यापकता और पवित्रता दोनों प्रदान की। सबसे बढ़कर यह कि भाजपा ने इस तरह से हुयी कमाई सिर्फ नेताओं के घर भरने तक ही सीमित नहीं रखी -- देश भर में भाजपा कार्यालयों के रूप में इसके ताजमहल भी खड़े किये। मगर कर्नाटक का मामला नवीनता के हिसाब से इन सबसे भी थोड़ा और आगे जाता है।
यह एक और प्रचलित धारणा कि "नागिन भी एक घर छोड़कर काटती है और बाहर कितनी भी टेढ़ी टेढ़ी जाए, अपनी बाँबी में जब घुसती है तो सीधी होकर ही घुसती है" को भी बेकार और कालातीत बनाती है। इसलिए कि ईश्वरप्पा ने जिसे मारा है, वह कोई अज्ञात कुलशील ठेकेदार नहीं था। वह खुद उनके ही कुटुम्ब-कबीले और विचार-गिरोह - जिसे भाई लोग संघ परिवार कहते हैं - का समर्पित सदस्य था।
वह आरएसएस का छोटा-मोटा कार्यकर्ता नहीं था। बाकायदा ओटीसी प्रशिक्षित था। आरएसएस के संगठन हिन्दू वाहिनी का राष्ट्रीय सचिव था। देश-प्रदेश के अनेक संघ प्रचारकों के साथ उसका घरोपा था। वह भारतीय जनता पार्टी का भी अपने इलाके का प्रमुख नेता था। जिनकी वजह से उसने मौत का रास्ता चुना, वे ग्रामीण विकास तथा पंचायत मंत्री के एस ईश्वरप्पा तो हैं हीं संघ के अत्यंत पुराने स्वयंसेवक। करीब 50 वर्ष पुराने संघी हैं। जनसंघ के जमाने से भाजपा के देश के बड़े नेताओं में से एक हैं, कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री भी रहे हैं।
इस तरह दोनों ही पक्ष "मातृभूमि की निःस्वार्थ सेवा" के लिए समर्पित "विश्व के सबसे बड़े" सांस्कृतिक संगठन के प्रतिबद्ध सेवक थे और इनमे से जो खुद ईश्वर थे, वे अपने आचरण से एक और कहावत कि "नमक से नमक नहीं खाया जाता" को गलत साबित कर रहे थे। *संघी हस्ते संघी हत्या, हत्या न भवति* का नया वैदिक सूत्र गढ़ रहे थे।
कहानी में एक ट्विस्ट और भी है और वह यह है कि संतोष पाटिल ने ईश्वरप्पा द्वारा मांगे जा रहे कमीशन की शिकायत भाजपा-आरएसएस के सभी छोटे-बड़े नेताओं से की थी। यहां सुनवाई नहीं हुयी, तो उन्होंने ईश्वरप्पा के ब्रह्मा-अप्पा स्वयंसेवक प्रधानमंत्री मोदीजी के दरबार में भी गुहार लगाई थी। उनकी वहां भी नहीं सुनी गयी। आत्महत्या करने के पहले उन्होंने अपने "गुरु जी के साथ दिल्ली जाने" और वहां ब्रह्मा के दरबार में सीधे पहुँचने के इरादे की घोषणा की थी। मगर ईश्वर ने उन्हें वहां जाने ही नहीं दिया।
इस बीच ईश्वरप्पा इस्तीफा दे चुके हैं, उनके खिलाफ एफआईआर हो गयी हैं - और उनके कुलगुरु येदियुरप्पा एलान कर चुके हैं कि "कुछ नहीं होगा, ईश्वरप्पा मंत्रिमंडल में दोबारा वापस आएंगे।"
चलते-चलते बिन माँगी सलाह
'कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा' का सवाल देने वाली फिल्म बाहुबली-2 के बिम्ब में कहें, तो यह है कि देवसेना भी बची रहे, महिष्मती राज्य भी सलामत रहे, कटप्पा की पारम्परिक गुलामी से उपजे दासत्व भाव में भी दाग न लगे और बाहुबली भी न मरे। इसके लिए भल्लाल देव को ही कुछ करना होगा।
मतलब यह कि संघ इसका संज्ञान ले, इस हादसे से सबक ले और अपने परिवार में सुलह-समझौते - आर्बिट्रेशन - का ऐसा मैकेनिज्म बनाए, जहां बँटवारे और हिस्सेदारियों के सारे झगड़े-टंटे हल किये जा सकें ; ताकि ईश्वर भी बचे रहें, व्यापमी पुण्याई की मलाई भी परिवार में सबको मिल जाए और संतोष पाटिलों को भी बिन बुलाये ईश्वर के पास जाने के रास्ते चुनने से बचाया जा सके।
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