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खुलती जा रही मोदी राज के झूठे दावों की पोल : राजेन्द्र शर्मा

कलम से : हैरानी की बात यह नहीं है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, जो अपनी अनेक सीमाओं के बावजूद, कोविड-19 वायरस की महामारी से दुनिया की ...

कलम से : हैरानी की बात यह नहीं है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, जो अपनी अनेक सीमाओं के बावजूद, कोविड-19 वायरस की महामारी से दुनिया की लड़ाई का नेतृत्व कर रहा था, इस महामारी की इंसानी जानों के रूप में सबसे भारी कीमत भारत ने ही चुकाई है। इस विश्व संगठन के आंकड़ों के अनुसार, दुनिया भर में इस महामारी से जो करीब डेढ़ करोड़ जानें गयी हैं, उनमें हरेक तीन में से एक यानी 47 लाख 29 हजार से कुछ ज्यादा मौतें भारत में ही हुई हैं। यह आंकड़ा 1 जनवरी 2020 से दिसंबर 2021 तक यानी भारत में कोविड की दोनों बड़ी लहरों का है। यह आंकड़ा न सिर्फ इस महामारी से मौतों के मामले में भारत की स्थिति दुनिया भर में सबसे बुरी रहने को दिखाता है, बल्कि यह भी ध्यान दिलाता है कि कोविड-19 से मौतों के मामले में दस लाख से ऊपर की संख्या वाली रूसी फैडरेशन व इंडोनेशिया और नौ लाख से कुछ ऊपर मौतों वाले अमेरिका से भारत में मौतों का आंकड़ा करीब पांच गुना ज्यादा रहा है।



लेकिन, जैसाकि हमने शुरू में ही कहा, इससे शायद ही किसी को हैरानी होगी। लेकिन, इसमें जरूर कुछ हैरानी हो सकती है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आखिकार, आधिकारिक रूप से भारत में कोविड-19 की मौतों का अपना अनुमान प्रकाशित कर दिया है और इस अनुमान के प्रकाशन के जरिए प्रकारांतर से यह भी कहा है कि नरेंद्र मोदी की सरकार, कोविड की हरेक दस मौतों में से एक ही दिखा रही थी और पूरी नौ मौतों को छुपा रही थी! याद रहे कि भारत सरकार कोविड-19 की मौतों की कुल संख्या 5.2 लाख ही बताती आई है। खैर! हैरानी इसलिए कि अब यह बात आम जानकारी में आ चुकी है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के कोविड मौतों का अपना अनुमान तैयार करने के क्रम में भारत सरकार से किए गए परामर्श के दौरान, जब यह साफ हो गया कि यह विश्व संगठन कोविड मौतों के मोदी सरकार के आंकड़े को आंख मूंदकर स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है, तभी से वर्तमान सरकार ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के महामारी के नुकसान के आकलन के खिलाफ बाकायदा अभियान छेड़ा हुआ था। इस सिलसिले में चली लंबी रस्साकशी में विश्व स्वास्थ्य संगठन की मौतों के आकलन की पद्घति की वैज्ञानिकता से लेकर विश्वसनीयता तक के सवाल उठाए गए थे।


इनमें भेदभाव का काफी प्रत्यक्ष आरोप भी शामिल था कि अमेरिका आदि की तरह, भारत सरकार द्वारा दिए जा रहे कोविड की मौतों के आंकड़े को बिना सवाल उठाए स्वीकार क्यों नहीं कर लिया जाता! मोदी सरकार की इस मुहिम के बावजूद, जिसमें उसने अपनी सारी कूटनीतिक ताकत झोंक दी थी, विश्व स्वास्थ्य संगठन का भारत में कोविड की मौतों का अपना स्वतंत्र अनुमान प्रकाशित करना, न सिर्फ अपने आप में किसी को हैरान कर सकता है, बल्कि सच्चाइयों को छुपाने में मोदी सरकार की सीमाओं की ओर भी इशारा करता है, जिसके निहितार्थ दूर तक जाते हैं।


बहरहाल, जैसाकि आसानी से अनुमान लगाया जा सकता था, मोदी सरकार ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के इन आंकड़ों को झुठलाने के लिए न सिर्फ बाकायदा अभियान छेड़ दिया है, बल्कि इस विवाद को विश्व स्वास्थ्य संगठन की कार्यकारिणी में उठाने समेत तरह-तरह के कदमों की धमकी भी दी है।


विश्व स्वास्थ्य संगठन की उक्त रिपोर्ट से ऐन पहले, 3 मई को विश्व प्रैस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर, एक और ऐसी ही रिपोर्ट आई, जो नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा झूठे प्रचार के शोर के पर्दे में छुपाई जा रही, भारतीय जनता की बदहाली की सच्चाई के, बाकी दुनिया द्वारा पहचाने जाने को दिखाती थी। हमारा इशारा, प्रेस की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्घ पत्रकारों की विश्व संस्था, रिपोर्टर्स विदाउट बार्डर्स द्वारा विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर जारी किए गए, विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक की ओर है। यह सूचकांक दर्शाता है कि मोदी राज में भारत प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में, जोकि जनतंत्र की दशा का भी बहुत ही महत्वपूर्ण संकेतक है, दुनिया के कुल 180 देशों में 150वें स्थान पर पहुंच गया है। इतना ही महत्वपूर्ण यह है कि पिछले साल इसी सूचकांक पर भारत, 142वें स्थान पर था यानी कोविड के एक वर्ष में प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में भी भारत पूरे 8 अंक नीचे खिसक गया है। यह मोदी के बढ़ती तानाशाही के राज में भारत में प्रेस की स्वतंत्रता में गिरावट लगातार जारी रहने को ही दिखाता है। 2016 में, मोदी राज की शुरूआत में इसी सूचकांक पर भारत 133वें स्थान पर था, जहां से लगातार नीचे ही खिसकता गया है। कहने की जरूरत नहीं है कि प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में मोदी राज में भारत के तेजी से नीचे खिसकते जाने में भी शायद ही किसी को हैरानी होगी। मोदी राज में हर तरह से प्रेस की स्वतंत्रता कुचला जाना, कोविड की बेहिसाब मौतों की तरह, सब की देखी-जानी सच्चाई है।


वास्तव में मोदी राज ने अपने चौतरफा हमलों से मीडिया की स्वतंत्रता का करीब-करीब गला ही घोंट दिया है और भारत में मीडिया को, सच्चाई को बताने-दिखाने का नहीं, बल्कि उसे छुपाने का और इससे भी बढ़कर सच्चाइयों को नकारने के लिए, अपने झूठे आख्यानों के प्रचार का साधन बनाकर रख दिया है। मीडियाकर्मियों से लेकर मीडिया संस्थानों तक को, शासन की विभिन्न एजेंसियों का सहारा लेकर धौंस में लिया जा रहा है और उससे काम नहीं चले, तो उन पर झूठी-सच्ची कानूनी कार्रवाइयों की लाठी चलाई जा रही है। प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति मौजूदा निजाम का क्या रवैया है, इसका हालिया सबूत उत्तर प्रदेश में देखने को मिला, जहां देवरिया तथा एक अन्य जिले में, बोर्ड की परीक्षा के एक पर्चे के लीक होने की खबर प्रकाशित करने के लिए, योगी राज की पुलिस ने आधे दर्जन से ज्यादा पत्रकारों को ही जेल में बंद कर दिया।


अचरज नहीं कि प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक पर भारत के नीचे खिसकने के पीछे, पत्रकारों के यूएपीए तथा एनएसए जैसे अत्याचारी नजरबंदी कानूनों में जेल में डाले जाने के बढ़ते मामले भी शामिल हैं। कश्मीर में फहद शाह से लेकर उत्तर प्रदेश में सद्दीक कप्पन तक के मामले, इसी के उदाहरण हैं। अचरज नहीं कि प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक पर भारत के नीचे लुढ़कने की खबर आने के फौरन, सारी दुनिया ने इसे भी दर्ज किया है कि प्रधानमंत्री मोदी की हाल की जर्मनी की यात्रा के मौके पर, भारत के आग्रह पर ही, जर्मनी चांसलर के साथ प्रधानमंत्री मोदी की संयुक्त प्रेस वार्ता में, सामान्य परंपरा के विपरीत, पत्रकारों को सवाल ही नहीं पूछने दिया गया। मीडिया की स्वतंत्रता के प्रति मोदी राज की शत्रुता का इससे प्रभावशाली विज्ञापन दूसरा नहीं हो सकता था।


इसी तरह, मोदी सरकार के लाख इंकार करने के बावजूद, सारी दुनिया भारत में धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर खतरनाक ढंग से बढ़ते हमलों का, अब ज्यादा से ज्यादा खुलकर नोटिस लेती नजर आती है। यह संयोग ही नहीं है कि जब मोदी राज में बुलडोजर के खासतौर पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ शासन की दमनकारी मनमानी के नये प्रतीक के रूप में उभरने की पृष्ठïभूमि में, अपनी हाल की भारत यात्रा में ब्रिटिश प्रधानमंत्री, बोरिस जॉन्सन ने अहमदाबाद में बुलडोजर यानी जेसीबी पर चढ़कर तस्वीर खिंचाई थी, अपने इस अविवेकी कदम के लिए उन्हें लौटने के बाद ब्रिटिश संसद में सवालों का सामना करना पड़ा था। उनसे पूछा जा रहा था कि क्या वह भारत में बुलडोजर के अल्पसंख्यकविरोधी सरकारी हिंसा के हथियार के रूप में इस्तेमाल का अनुमोदन कर रहे थे? उधर अमेरिकी संसद द्वारा गठित, अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग ने लगातार तीसरे साल, धार्मिक स्वतंत्रता के मामले में भारत को 'विशेष चिंता वाला देश' घोषित करने की सिफारिश की है।


इसके बाद अमरीकी प्रशासन भले ही अपने आर्थिक-भू-रणनीतिक फायदे के लिए औपचारिक रूप से भारत को धार्मिक स्वतंत्रता के लिहाज से सबसे खराब देशों की उक्त श्रेणी में नहीं डाले, पर उसने दोनों देशों के हरेक उच्चस्तरीय संवाद में, धार्मिक स्वतंत्रताओं की स्थिति पर चिंता जताने की रस्मअदायगी तो शुरू भी कर दी है।


मोदी राज में न्यू इंडिया के धोखे में देश को सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक, हरेक लिहाज से पीछे धकेले जाने की सच्चाई को दबाने-छुपाने और झूठे प्रचार से ढांपने के सारे इंतजाम किए जाने के बावजूद, मोदी राज के झूठे दावों की पोल अब ज्यादा से ज्यादा खुलती जा रही है। और मौजूदा राज की सारी घेरेबंदी के बावजूद, खुद देश में भी धीरे-धीरे इसका असर दिखाई देता नजर आता है।



(लेखक 'लोकलहर' के संपादक है।)

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