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गज़वा-ए-हिन्द, विशेष विमर्श : कौशलेंद्र

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कलम से : उचित-अनुचित, सही-गलत और पाप-पुण्य का निर्धारण कौन करता है? क्या कोई सर्वशक्तिमान सत्ता इन्हें रेखांकित करती है? क्या ये रेखाएँ सार...

कलम से : उचित-अनुचित, सही-गलत और पाप-पुण्य का निर्धारण कौन करता है? क्या कोई सर्वशक्तिमान सत्ता इन्हें रेखांकित करती है? क्या ये रेखाएँ सार्वभौमिक और सार्वकालिक होती हैं? 



मोहम्मद-बिन-कासिम से लेकर मोहम्मद अली जिन्ना, जवाहरलाल, मोहनदास करमचंद, हामिद अंसारी, फ़ारुख़ अब्दुल्ला, मोहम्मद मुफ़्ती सईद, यासीन मलिक और तमाम ऐसे लोग जो भारत में इस्लामिक सत्ता के विस्तार के लिए एक कॉमन एजेंडे पर काम करते रहे हैं, क्या उन्हें ‘गलत’ और उनके कृत्यों को ‘अनुचित’ कहा जा सकता है! सनातनियों को बहुत सावधानी और गम्भीरता से इन सभी विषयों पर चिंतन करने की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि यदि उन्होंने अब भी चिंतन न किया और अपनी रक्षा के लिए रणनीति न बनायी तो बचे-खुचे भारत से विश्व की प्राचीनतम संस्कृति सदा के लिए समाप्त हो जायेगी। 

मैं इन सभी प्रश्नों को दो दृष्टियों से देखता रहा हूँ – एक सार्वकालिक और दूसरा तात्कालिक। सार्वकालिक रेखाएँ अपरिवर्तनीय हुआ करती हैं जबकि तात्कालिक रेखाएँ बनती और बिगड़ती रहती हैं। 

जो सनातन सत्य है वह न तो बनेगा और न बिगड़ेगा क्योंकि वह बनता नहीं, वह तो होता है। रही बात पाप-पुण्य और उचित-अनुचित की, तो ये परिस्थिति सापेक्ष हैं। जो एक के लिए उचित है वह दूसरे के लिए अनुचित हो सकता है। पाप और पुण्य भी स्थिति सापेक्ष्य होने से अपने पृथक-पृथक रंग प्रक्षेपित करते रहते हैं। 

...तो इस आधार पर कहा जा सकता है कि न तो वास्कोडिगामा गलत था, न मोहम्मद-बिन-कासिम, न तैमूर लंग, न जिंघेझ ख़ान और न जनरल डायर। ये सभी अपने-अपने उद्देश्यों के लिए काम करते रहे हैं, अपने-अपने लक्ष्यों का संधान करते रहे हैं। यही इंसानी फ़ितरत है। एक आक्रामक व्यक्ति अपने अनुयायियों के लिए नायक ही नहीं सर्वशक्तिमान ईश्वर का दूत भी बन जाता है और सुभाष चंद्र बोस एवं सरदार भगत सिंह जैसे लोग आतंकवादी परिभाषित किए जाने लगते हैं। छह साल की बच्ची से विवाह करने वाला कोई अधेड़ पुण्यात्मा मान लिया जाता है और आजीवन सत्य का अनुसंधान करने के लिए समर्पित रहने वाले वैदिक ऋषि पापी मान लिए जाते हैं। सर्वशक्तिमान ईश्वर की यहाँ कोई भूमिका नहीं होती। लाइट एनर्जी उसकी रचना है तो डार्क मैटर भी उसी की रचना है। 


ज्ञान भी दो प्रकार के होते हैं, एक इनका ज्ञान और दूसरा उनका ज्ञान। इनके ज्ञान में धरती गोल है, उनके ज्ञान में धरती चपटी है। एक ही धरती के दो-दो ज्ञान प्रचलित हैं... इसी धरती पर। 

धरती को गोल कहो या चपटी, वह कोई प्रतिक्रिया नहीं देती।    


वैदिक ऋषियों के भारत का जब १९४७ में विभाजन हुआ तो ज्ञान के मानक बदल गये, तथ्य बदल गये, सही-गलत और पाप-पुण्य सभी की नयी परिभाषाएँ लिख दी गयीं। जिन्ना के हिस्से वाले भारत में छात्रों को पढ़ाया जाने लगा कि हिन्दू लोग पशुओं से भी बुरे होते हैं। मोहनदास करमचंद और जवाहरलाल के हिस्से वाले भारत में पढ़ाया जाने लगा कि मुसलमान महान होते हैं। दोनों ज्ञान देखने में अलग-अलग प्रतीत होते हैं, एक जगह हिन्दू बुरा है, दूसरी जगह मुसलमान अच्छा है, किंतु इन दोनों का संदेश एक ही है। 

इधर मोहनदास करमचंद और जवाहरलाल के हिस्से वाले भारत में हिन्दू उन्मूलन की चरणबद्ध खेती की जाने लगी। उधर जिन्ना के हिस्से वाले भारत में हिन्दुओं का नरसंहार होता रहा। इस तरह पूरे भारत में हिन्दू उन्मूलन और इस्लामिक मुल्क की स्थापना के प्रयास होते रहे, होते रहेंगे। 

हम लकड़बग्घों को गलत कैसे कह सकते हैं! हम हिरण शावक की अपर्याप्त रक्षण क्षमता को भी गलत कैसे कह सकते हैं! “सर्वाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट” की सैद्धांतिक परिभाषा जितनी सत्य लकड़बग्घे के लिए है उतनी ही सत्य हिरणशावक के लिए भी है। गंगा-जमुनी तहज़ीब के जाल में फँसा हिरणशावक जीता नहीं, लकड़बग्घा मरता नहीं, क्योंकि “सर्वाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट” की व्यावहारिकता पाप और पुण्य की नींव पर नहीं बल्कि आत्मरक्षण क्षमता की नींव पर फलित होती है।   


जो क्रांति करते हैं उन्हें सत्ता की भूख नहीं होती, जिन्हें सत्ता की भूख होती है वे क्रांति नहीं करते। क्रांति वह भोजन है जिसका भक्षण केवल सत्तालोभी ही कर पाते हैं, इसीलिए कोई भी क्रांति स्थायी नहीं होती, कुछ समय बाद स्थितियाँ फिर पूर्ववत हो जाया करती हैं, सत्ता शेर के पास चली जाती है और लकड़बग्घे फिर किसी क्रांति की ताक में छिपकर बैठ जाते हैं। भारत को लकड़बग्घों से सावधान रहने की आवश्यकता है।    

मत भूलिए कि राज तो अँधेरे ही किया करते हैं, उजाले तो केवल अपने अस्तित्व के लिए जूझते भर रहते हैं। उजाले आते हैं जाते हैं, इसलिए उन्हें निरंतर जूझना होता है, अँधेरे सदा रहते हैं, इसलिए उन्हें जूझना नहीं होता। उजालों की अनुपस्थिति ही अँधेरों का अस्तित्व है। सनातनियों को सदा जाग्रत रहना होगा अन्यथा बहुरूपिये अँधेरे तो उन्हें निगल जाने की ताक में बैठे ही हैं।

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