Page Nav

HIDE

Grid

GRID_STYLE

Pages

Classic Header

{fbt_classic_header}

Top Ad

पुस्तक विमर्श , "थोड़ी सी जमीन थोड़ा सा आसमान - जयश्री राय" : कौशलेंद्र

यह भी पढ़ें -

श्रीमती जयश्री राय द्वारा लिखित इस उपन्यास की चर्चा वाणी प्रकाशन और भारतीय ज्ञानपीठ के संयुक्त मंच पर हाल ही में सम्पन्न हुयी। चर्चा में अर्...



श्रीमती जयश्री राय द्वारा लिखित इस उपन्यास की चर्चा वाणी प्रकाशन और भारतीय ज्ञानपीठ के संयुक्त मंच पर हाल ही में सम्पन्न हुयी। चर्चा में अर्पण कुमार, डॉ. ओम मित्तल और डॉ. चंद्रकांता त्रिपाठी ने भाग लिया। लेखिका जयश्री राय मानती हैं कि यह उपन्यास “मनुष्यता की तलाश में एक यात्रा” है। चर्चा में लेखिका ने यह भी बताया कि ब्राह्मणकुलोत्पन्न होते हुये भी उनके घर के सदस्यों में अंतरधार्मिक और अंतरजातीय वैवाहिक सम्बंधों के परिणामस्वरूप कई धर्मों और जातियों वाले लोग रहते हैं और यह सब अनायास ही नहीं बल्कि एक सायास व्यवस्था है। सभी मनुष्यों को एक ही जाति का सदस्य मानने के कारण उनकी लेखकीय दृष्टि उनमें कोई विभेद नहीं देखना चाहती, इसके बाद भी मनुष्य विभिन्न जातियों और धर्मों में बँटकर मनुष्यता से दूर होता जा रहा है जिससे वे व्यथित हैं। 

प्रेम, सौंदर्य और करुणा की एकता में मनुष्यता को देखने वाली यात्रा को पिरोकर रचे गये इस उपन्यास में थोड़ी सी जमीन और थोड़े से आसमान की तलाश की गयी है, किंतु इस तलाश से पहले इस बात पर भी विचार करना आवश्यक है कि इतनी विशाल धरती पर थोड़ी सी ही जमीन और थोड़े से ही आसमान की अभिलाषा क्यों, पूरी धरती और पूरे आसमान की क्यों नहीं? वे कौन से घटक होते हैं जो मनुष्य जाति को विभिन्न जातियों और विभिन्न संस्कृतियों में विभक्त कर दिया करते हैं? क्या हम उन कारक घटकों को समाप्त कर पाने की स्थिति में हैं?

चलो मान लेते हैं कि मनुष्य की तरह वनस्पति भी एक जाति है इसलिए सभी वनस्पतियों में कोई आपसी विभिन्नता नहीं होनी चाहिये, उनकी जीवनशैली और व्यवहार में भी एकरूपता होनी चाहिये। क्या ऐसा सम्भव है? वीनस फ़्लाइ ट्रैप, ड्रोसेरा, कैलीफ़ोर्निया पिचर प्लांट, डायोनिया, सेरोसेनिया और यूट्रीकुलेरिया जैसे कीटभक्षी पादपों से क्या देवदारु, तालीस और पीपल आदि वृक्षों जैसे आचरण की अपेक्षा सम्भव है? रहीम दास नें तो बेर और केर के सह अस्तित्व की सम्भावनाओं पर बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा दिया था। कदाचित इसीलिए यथार्थवादी मानते हैं कि साहित्यिक आदर्शों की स्थापना करते समय वैज्ञानिक आदर्शों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिये।

फ़िल्म निर्देशक ने एक फ़िल्म में हिन्दू और मुसलमान के रक्त को हथेली में मिला देने के बाद नाना पाटेकर के मुँह से पुछवाया – अब बता इसमें कौन सा हिंदू का है कौन सा मुसलमान का? फ़िल्म निर्देशक महोदय! ब्लड इनकॉम्पीटेंसी तो रिश्तेदारों के बीच भी हो सकती है। 

ऐसा नहीं कहा जा सकता कि फ़िल्म निर्देशक को रक्त के चार समूहों के बारे में जानकारी नहीं होगी ...और उन्हें यह भी नहीं पता होगा कि ए और बी समूह के रक्त को एक-दूसरे के शरीर में चढ़ा देने से दोनों की मृत्यु निश्चित है। पता नहीं हिन्दी के साहित्यकार और फ़िल्म निर्देशक ऐसी मिथ्या धारणाओं की स्थापना करके क्या सिद्ध करना चाहते हैं!  

हिन्दी के साहित्यकार आसमान में छलाँग़ लगाते समय प्रायः यह भूल जाते हैं कि छलाँग के बाद की अगली स्थिति जमीन पर ही वापस आने की होती है। कोई भी व्यक्ति सदा कल्पना में ही रहकर नहीं जी सकता, हम सब को कल्पना लोक से वापस आकर इसी समाज के यथार्थ से जूझना होता है जहाँ न जाने कितने अवरोधक और अप्रिय तत्व उपलब्ध रहते हैं। मैं यूटोपिया का विरोध नहीं करता पर इतना अवश्य आग्रह करना चाहता हूँ कि यूटोपिया की डोर धरती से बँधी रहनी चाहिये अन्यथा हिन्दी साहित्य प्रकाशन के बाद केवल पुस्तकालयों तक ही सीमित होकर रह जायेगा।  

यह सही है कि मनुष्यता की तलाश किसी जाति या धर्म तक ही सीमित नहीं होती। हर जाति और सम्प्रदाय में कुछ तो लोग ऐसे होते ही हैं जो वास्तव में मनुष्य होते हैं। 

हमें विभिन्न धर्मों (सम्प्रदायों) और संस्कृतियों की सीमाओं से परे जाकर अपने भीतर मनुष्यता का निर्माण करना होता है और यही इसकी सबसे बड़ी चुनौती है। मनुष्यता की बहुत कुछ झलक हमें व्यक्ति की जीवनशैली में मिल जाया करती है जो अंततः हमारे चरित्र और आचरण का निर्माण करती है। 

लेखिका के घर के सभी सदस्यों द्वारा सायास किये गये अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाह सुनने में तो एक विराट समाज की अनुभूति करवाते हैं किंतु व्यापक रूप में इसे यथार्थ के धरातल पर लाया जा सकना सम्भव नहीं प्रतीत होता। यदि सभी बिंदुओं पर इतनी एकता और समता सम्भव हो पाती तो न विभिन्न सम्प्रदाय होते, न विभिन्न संस्कृतियाँ होतीं और न इतनी जीवनशैलियाँ होतीं। मैं इन विभिन्नताओं के व्यावहारिक पक्ष की बात करना चाहता हूँ।

साहित्य को भेलपूड़ी बना दिये जाने के व्यावहारिक औचित्य पर चर्चा होनी चाहिये। विभिन्न संस्कृतियों और जीवनशैलियों के बीच सुरक्षा का एक संतुलन बन सके, मनुष्यता के लिए यही बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। कुल मिलाकर आदर्शों और स्वप्नों की सीमाओं के भीतर रहते हुये यथार्थवादी साहित्य रचना को मैं कहीं अधिक उपादेय मानता हूँ। लेखिका इस बात के लिए अवश्य बधाई की पात्र हैं कि प्रेम, सौंदर्य और करुणा की एकता की उनकी तलाश उनके अपने घर के मुसलमान, ईसाई, सिख आदि विभिन्न विचारधारा वाले सदस्यों में पूरी हो सकी। काश! पूरे विश्व में ऐसा हो पाता और हम सब एक वैश्विक संस्कृति के वाहक हो पाते।

No comments