जगदलपुर (विमलेन्दु शेखर झा) :- विश्व प्रसिद्ध बस्तर द शहरा के बाहर रैनी की रस्म विधि विधान से संपन्न हो गई है, और इस आखिरी रथ परिक्रमा के ...
जगदलपुर (विमलेन्दु शेखर झा) :- विश्व प्रसिद्ध बस्तर द
शहरा के बाहर रैनी की रस्म विधि विधान से संपन्न हो गई है, और इस आखिरी रथ परिक्रमा के रस्म को बाहर रैनी रस्म कहा जाता है माड़िया जनजाति के ग्रामीण परंपरागत 8 पहिए वाले रथ को चुराकर कुम्हडाकोड जंगल में ले जाते हैं जिसके बाद राजा परिवार के सदस्य कुम्हडाकोड पहुंचकर ग्रामीणों को मनाकर और उनके साथ मिलकर चावल से बने खीर नवाखानी खाई के बाद रथ को वापस शाही अंदाज में राजमहल लाया जाता है इस रस्म को बाहर रैनी रस्म कहा जाता है।
इस महत्वपूर्ण पर्व में मां दंतेश्वरी का छतर विराजमान रहता है, बताया जाता है कि बस्तर के राजा पुरषोत्तम देव ने जगन्नाथपुरी से रथपति की उपाधि मिलने के बाद बस्तर के दशहरे के अवसर पर रथ परिक्रमा की प्रथा आंरभ की गई थी जो कि आज तक अनवरत चली आ रही है। और विश्व प्रसिद्ध दशहरा के इस आखिरी रस्म को देखने हर साल लोगों का जनसैलाब उमर पड़ता है। लाखों की संख्या में विभिन्न क्षेत्रो से ग्रामीण एवं सैलानी बस्तर आते हैं और दशहरा का या विश्व प्रसिद्ध दशहरा का लुफ्त उठाते हैं आप सभी को मालूम ही है बस्तर का दशहरा एक विशेष त्योहार के रूप में मनाया जाता है और इस समाचार के माध्यम से यह भी बताना जरूरी है की बस्तर के दशहरे में रावण मारने वाली प्रथम नहीं है यहां का दशहरा राजघराना और यहां की परंपरा के अनुसार देवी देवताओं का आव्हान किया जाता है एवं गांव के देवी देवता, सिरहा, गुनिया,मांझी, चालाकी,गायता,और पुजारी का विशेष योगदान रहता है यहां की परंपरा बहुत ही पुरानी है इसके बारे में यहां के महाराजा ने काफी कुछ बताया भी है जिसे आप देख सकते है।
यह परंपरा रियासत काल के पहले से अनवरत चलती आ रही है इसकी परंपराओं में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं किया जाता है लगभग इस पुरानी परंपरा से आज भी यह दशहरा काफी धूमधाम से मनाया जा रहा है लेकिन यह बताना भी जरूरी है कि अब थोड़ा सा राजनीतिकरण दिखने लगा है जो की यहां के निवास रत ग्रामीणों को असहज सा महसूस होने लगा है।
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