• परंपरा और आस्था का प्रतीक है यह पर्व : जगदलपुर : सिंधी समाज थदड़ी पर्व धूमधाम से मनाएगा। किसी भी धर्म के त्योहार और संस्कृति उसकी पहचान ह...
• परंपरा और आस्था का प्रतीक है यह पर्व :
जगदलपुर : सिंधी समाज थदड़ी पर्व धूमधाम से मनाएगा। किसी भी धर्म के त्योहार और संस्कृति उसकी पहचान होते हैं। त्योहार उत्साह, उमंग व खुशियों का ही स्वरूप हैं। लगभग सभी धर्मों के कुछ विशेष त्योहार या पर्व होते हैं जिन्हें उस धर्म से संबंधित समुदाय के लोग मनाते हैं। ऐसा ही पर्व है सिंधी समुदाय का 'थदड़ी'। थदड़ी शब्द का सिंधी भाषा में अर्थ होता है ठंडी, शीतल...। रक्षाबंधन के आठवें दिन इस पर्व को समूचा सिंधी समुदाय हर्षोल्लास से मनाता है।
पूज्य सिंधी पंचायत अध्यक्ष मनीष मूलचंदानी ने बताया आज से हजारों वर्ष पूर्व मोइनजोदड़ो की खुदाई में माँ शीतला देवी की प्रतिमा निकली थी। ऐसी मान्यता है कि उन्हीं की आराधना में यह पर्व मनाया जाता है। थदड़ी पर्व को लेकर तरह-तरह की भ्रांतियाँ भी व्याप्त हैं। कहते हैं कि पहले जब समाज में तरह-तरह के अंधविश्वास फैले थे तब प्राकृतिक घटनाओं को दैवीय प्रकोप माना जाता था। जैसे समुद्री तूफानों को जल देवता का प्रकोप, सूखाग्रस्त क्षेत्रों में इंद्र देवता की नाराजगी समझा जाता था। इसी तरह जब किसी को माता (चेचक) निकलती थी तो उसे दैवीय प्रकोप से जोड़ा जाता था तब देवी को प्रसन्न करने हेतु उसकी स्तुति की जाती थी और थदड़ी पर्व मनाकर ठंडा खाना खाया जाता था।
सुहिणी सोच महिला विंग की अध्यक्षा नीलम बसन्तवानी ने जानकारी दी थदड़ी त्योहार के एक दिन पहले हर सिंधी परिवार में तरह-तरह के व्यंजन बनाए जाते हैं। जैसे कूपड़, गच, कोकी, सूखी तली हुई सब्जियाँ- भिंडी, करेला, आलू, रायता, दही-बड़े, मक्खन आदि। आटे में मोयन डालकर शक्कर की चाशनी से आटा गूँथकर कूपड़ बनाए जाते हैं। मैदे में मोयन और पिसी इलायची व पिसी शक्कर डालकर गच का आटा गूँथा जाता है। अब मनचाहे आकार में तलकर गच तैयार किए जाते हैं। रात को सोने से पूर्व चूल्हे पर जल छिड़क कर हाथ जोड़कर पूजा की जाती है। इस तरह चूल्हा ठंडा किया जाता है।
पूज्य सिंधी पंचायत के सचिव हरेश नागवानी ने बताया थदड़ी दिवस पर घरों में चूल्हा नहीं जलता है एवं एक दिन पहले बनाया ठंडा खाना ही खाया जाता है। इसके पहले परिवार के सभी सदस्य किसी नदी, नहर, कुएँ या बावड़ी पर इकट्ठे होते हैं वहाँ माँ शीतला देवी की विधिवत पूजा की जाती है। इसके बाद बड़ों से आशीर्वाद लेकर प्रसाद ग्रहण किया जाता है। बदलते दौर में जहाँ शहरों में सीमित साधन व सीमित स्थान हो गए हैं। ऐसे में पूजा का स्वरूप भी बदल गया है।अब कुएँ, बावड़ी व नदियाँ अपना अस्तित्व लगभग खो बैठे हैं। अतएव आजकल घरों में ही पानी के स्रोत जहाँ पर होते हैं वहाँ पूजा की जाती है। इस पूजा में घर के छोटे बच्चों को विशेष रूप से शामिल किया जाता है।
• थदड़ी माँ का स्तुति गान कर उनके लिए दुआ माँगी जाती है कि वे शीतल रहें व माता के प्रकोप से बचे रहें। इस दौरान ये पंक्तियाँ गाई जाती हैं :-
ठार माता ठार पहिंजे बच्चणन खे ठार,
माता अगे भी ठारियो तई हाणे भी ठार..
इसका तात्पर्य यह है कि हे माता मेरे बच्चों को शीतलता देना। आपने पहले भी ऐसा किया है आगे भी ऐसा करना।
सिंधी पंचायत की वरिष्ठ सदस्या चंद्रा देवी नवतानी ने बताया थदड़ी दिवस में घर के बड़े बुजुर्ग सदस्यों द्वारा घर के सभी छोटे सदस्यों को भेंट स्वरूप कुछ न कुछ दिया जाता है जिसे खर्ची कहते हैं। थदड़ी पर्व के दिन बहन और बेटियों को खासतौर पर मायके बुलाकर इस त्योहार में शामिल किया जाता है। इसके साथ ही उसके ससुराल में भी भाई या छोटे सदस्य द्वारा सभी व्यंजन और फल भेंट स्वरूप भेजे जाते हैं इसे 'थदड़ी का ढि्ण' कहा जाता है। इस तरह सिंधी समाज द्वारा बनाए जाने वाले 'थदड़ी पर्व' के कुछ रोचक और विशिष्ट पहलुओं को प्रस्तुत किया है। परंपराएँ और आस्था अपनी जगह कायम रहती हैं बस समय-समय पर इसे मनाने का स्वरूप बदल जाता है। यह भी सच है कि त्योहार मनाने से हम अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं व सामाजिकता भी कायम रहती है।
वर्तमान में आज विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि माता (चेचक) के इंजेक्शन बचपन में ही लग जाते हैं। परंतु दैवीय शक्ति से जुड़ा 'थदड़ी पर्व' हजारों साल बाद भी सिंधी समाज का प्रमुख त्योहार माना जाता है। इसे आज भी पारंपरिक तरीके से मिलजुल कर मनाया जाता है। समस्त जानकारी पूज्य सिंधी पंचायत के मीडिया प्रभारी सुनील नानकानी ने दी।
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