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नक्सली हिंसा की भेंट चढ़ी मासूमियत: 10 साल की मल्ले का सवाल, आखिर मेरा क्या दोष?

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जगदलपुर:  बस्तर की घोर नक्सल प्रभावित धरती पर रविवार को एक मासूम की खिलखिलाहट गोलों और बारूद के धमाके में खो गई। सुकमा जिले के तिम्मापुर गां...

जगदलपुर: बस्तर की घोर नक्सल प्रभावित धरती पर रविवार को एक मासूम की खिलखिलाहट गोलों और बारूद के धमाके में खो गई। सुकमा जिले के तिम्मापुर गांव में 10 साल की सोढ़ी मल्ले नक्सलियों द्वारा जमीन में बिछाई गई आईईडी को खिलौना समझ बैठी। उसके स्पर्श के साथ ही धमाका हुआ, जिसने मल्ले के कोमल शरीर को गहरी चोटें पहुंचाईं और उसकी मासूमियत को नक्सल आतंक की भेंट चढ़ा दिया।

घटना के बाद मल्ले के पिता केसा ने अपनी घायल बेटी को गोद में उठाकर पास के फूलनपाड़ गांव में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के नए कैंप में पहुंचाया। यहां बच्ची का प्राथमिक उपचार किया गया और फिर उसे जगदलपुर के शहीद महेंद्र कर्मा मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराया गया।

धमाके से झुलसी मल्ले के चेहरे और आंखों पर गहरी चोटें हैं। बिस्तर पर लेटी हुई मासूम दर्द से कराहते हुए बार-बार अपनी मां और पिता से सवाल करती है, "मुझे किस बात की सजा मिली है? मैंने क्या गलत किया?"

मल्ले की इस मासूमियत भरी जिज्ञासा का जवाब किसी के पास नहीं है। उसकी दादी उसे चुप कराने के लिए बूंदी खिलाने की कोशिश करती हैं, लेकिन वह दर्द से उभरने का नाम नहीं ले रही। बूंदी की यह छोटी सी मिठास भी मल्ले के दर्द के आगे फीकी पड़ रही है।

पिता केसा, जो खुद असहाय और भयभीत हैं, अपने गांव लौटने को लेकर चिंतित हैं। वह नक्सलियों के खौफ में कुछ भी खुलकर कहने से डरते हैं। उन्होंने घटना के बारे में बस इतना बताया कि रविवार की सुबह मल्ले घर के पास खेल रही थी, जब यह हादसा हुआ।

छत्तीसगढ़ में नक्सली हिंसा पिछले 24 वर्षों में हजारों जिंदगियों को निगल चुकी है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, अब तक 1750 से अधिक ग्रामीण नक्सली हिंसा में मारे जा चुके हैं। इनमें से सैकड़ों को जन अदालत में बेरहमी से मौत के घाट उतारा गया। आईईडी धमाकों में मारे गए और घायल लोगों की संख्या भी चौंकाने वाली है।

घटना के बाद सीआरपीएफ द्वारा घायल मल्ले को त्वरित इलाज के लिए मदद देना एक सकारात्मक पहलू है। बस्तर जैसे क्षेत्र में सुरक्षा बलों की उपस्थिति न केवल नक्सलियों के लिए चुनौती है, बल्कि यह आम लोगों के लिए राहत की एक किरण भी है।

मल्ले के पिता की गोद में उसका लहूलुहान शरीर और उसकी आंखों में झलकता दर्द यह सवाल उठाता है कि आखिर मासूम बच्चों की जिंदगी नक्सल हिंसा की भेंट कब तक चढ़ती रहेगी? क्या प्रशासन और समाज मिलकर बस्तर की इस त्रासदी को खत्म करने की कोई ठोस पहल करेंगे?मल्ले और उसकी जैसी हजारों मासूम जिंदगियां इंसाफ और शांति की उम्मीद में आज भी टकटकी लगाए देख रही हैं।

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