नई दिल्ली :- बजट-पूर्व आर्थिक सर्वेक्षण ने 'विकसित भारत' के नाम पर निजीकरण और कॉर्पोरेटपरस्ती के जिस रास्ते की हिमायत की है, उसकी प...
नई दिल्ली :- बजट-पूर्व आर्थिक सर्वेक्षण ने 'विकसित भारत' के नाम पर निजीकरण और कॉर्पोरेटपरस्ती के जिस रास्ते की हिमायत की है, उसकी पूरी झलक आज पेश बजट में है। लेकिन हर बजट जन कल्याण के आवरण में पेश किया जाता है, वहीं कोशिश इस बार भी हुई है, इसलिए यह बजट बताता कम और छुपाता ज्यादा है।
संसद में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा बजट पेश किए जाने के बाद कोई भी यह बताने की स्थिति में नहीं था कि हमारे बजट का कुल आकार कितना है, मनरेगा, आंगनबाड़ी, मध्यान्ह भोजन आदि योजनाओं के लिए कितना बजट आबंटित किया गया है, या एससी/एसटी उप-योजना के लिए ही कितनी राशि रखी गई है, या इस देश के गरीबों और किसानों के लिए खाद्यान्न और उर्वरक सब्सिडी के मद में कितनी राशि खर्च करने का प्रावधान किया गया है?? ये सब सवाल इसलिए कि कल ही संसद में अपने संबोधन में राष्ट्रपति ने "मेरी सरकार" को गरीबों, किसानों और युवाओं की सरकार बताया था। देशवासियों को इन सब सवालों के जवाब संसद से सीधे न मिले और उसे बजट दस्तावेजों को खंगालने के काम में उनकी सरकार लगा दें, तो राष्ट्रपति का कद "बेचारी महिला (पुअर लेडी)" का ही हो सकता है।
हां, बजट से दो बातें जरूर पता चली और गोदी मीडिया दिन भर जिसे प्रोजेक्ट करने के काम में प्राणप्रण से लगी रही। पहली, बिहार में बहार है, यह बहार इसलिए कि वहां विधानसभा चुनाव का अखाड़ा सजाया जाना है। दूसरा, 12 लाख रुपयों तक की आय पर करों में छूट दी गई है और मध्य वर्ग ऐसी भारी राहत पर पहली बार सवार हुआ है। यह राहत की यह सवारी भी इसलिए कि दिल्ली में चुनाव प्रचार चल रहा है और आप पार्टी का जनाजा निकालना है। भाजपा सरकार के इस बजट का यह "हिडेन एजेंडा" है, जिसमें दरअसल कुछ भी छुपा हुआ नहीं है। अब यदि केंद्र सरकार का बजट आगे-पीछे होने वाले राज्यों के चुनावों को ही ध्यान में रखकर तैयार किया जाए, तो इस आलेख के पाठक समझ सकते हैं कि संविधान के संघवादी सिद्धांत और देश के संघीय ढांचे का यह सरकार कितना सम्मान करती है! दलित-आदिवासियों को झांसा देने के लिए "बगल में छुरी" रखकर आंबेडकर का नाम जपना अलग बात है।
बिहार की जनता इस बहार पर कितना गदगद होती है, वह तो आने वाला समय बताएगा, क्योंकि पिछले दस सालों के मोदी राज में बजट में घोषित कितनी सारी लोक-लुभावन घोषणाएं कागजों में धूल खा रही है। फिर यह तो अमृत काल है। कुंभ में रखा अमृत कॉर्पोरेटों के लिए है, जनता के लिए तो केवल वह कुंभ है, जिसमें डुबकी लगाकर उसे पुण्यात्मा बनना है।
रहा 12 लाख रुपए की आय पर कर से छूट का सवाल, तो यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि हमारे देश में कितने लोगों की आय 12 लाख रुपए है? इस सरकार की ही रिपोर्ट बताती है कि हमारे देश के एक ग्रामीण परिवार की खर्च करने की ताकत 8000 रुपए और शहरों में 14000 रुपए मासिक ही है। हमारे देश का असंगठित मजदूर, जो कुल मजदूरों का 95% है, 26000 रुपए न्यूनतम मासिक मजदूरी या 3.12 लाख रुपए वार्षिक आय के लिए संघर्ष कर रहा है। अभी इन मजदूरों को इस मांग का 33 से अधिकतम 50% तक ही मिलता है। किसानों की हालत इससे भी ज्यादा खराब है। मनरेगा मजदूर सालों से 600 रुपए मजदूरी की मांग कर रहे हैं, लेकिन वह 225 रुपए के आसपास ही लटकी हुई है। नौकरीपेशा लोगों में से भी कितने लोगों का वेतन 12 लाख रुपए है? फिर जिन चंद लोगों को इसके फायदे का सपना यह बजट दिखा रहा है, बढ़ती महंगाई और अप्रत्यक्ष करों की बढ़ती मार उनकी इस बचत को भी छीन ले जाने वाली है।
अब आते हैं, उन सवालों पर, जो हमारे देश की जनता के असली सवाल है। लेकिन हम साल साल 2 करोड़ लोगों को रोजगार देने और किसानों की आय दुगुनी करने के भाजपा के वादे पर कुछ कहकर उसको लज्जित नहीं करेंगे, क्योंकि कहना उसे चाहिए, जिसे "प्राण जाहीं पर वचन न जाहीं" के सिद्धांत पर चलते हुए कुछ शर्म करे। पूंजी की चाकरी और कॉर्पोरेटपरस्ती शर्म छीन लेती है।
अपने आर्थिक सर्वेक्षण में इस सरकार ने स्वीकार किया है कि मुद्रास्फीति की दर 5% चल रही है। इस बार बजट का आकार 50.65 लाख करोड़ रुपयों का है, जो पिछले बजट (48.20 लाख करोड़) से 2.45 लाख करोड़ रुपए ज्यादा है और यह भी 5% की वृद्धि है। इस मुद्रास्फीति को ध्यान में रखा जाए, तो बजट के वास्तविक आकार में कोई वृद्धि नहीं हुई है और इससे अर्थव्यवस्था के समग्र प्रभाव में किसी बेहतर परिणाम की उम्मीद भी नहीं कर सकते। पिछले बजट में व्यय के जो प्रावधान रखे गए थे, उसमें से एक लाख करोड़ रुपए खर्च ही नहीं किए जा रहे हैं और ऐसा, आम की बेहतरी की कीमत पर राजकोषीय घाटा कम करने के लिए किया जा रहा है।
सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र का योगदान बढ़ा है। इसके साथ ही यह उल्लेखनीय तथ्य है कि कृषि क्षेत्र पर 2% लोगों की निर्भरता बढ़ गई है, क्योंकि कोरोना काल से पहले इस क्षेत्र में 44% लोग काम करते थे, अब उनकी संख्या बढ़कर 46% हो गई है और ऐसा शहरों से गांवों की ओर होने वाले उल्टे प्रवासन के चलते हुआ है। इस स्थिति को देखते हुए, कृषि और संबद्ध गतिविधियों में ज्यादा आबंटन की जरूरत है, लेकिन आबंटित किए गए हैं केवल 3,71,687 करोड़ रुपए ही, जबकि पिछले वर्ष 3,76,720 करोड़ रुपए आबंटित किए गए थे। बढ़ती मुद्रास्फीति को गणना में लिया जाएं, तो यह कटौती 6% से ज्यादा की है।
इसी प्रकार, मनरेगा का फंड 86000 करोड़ पर ही स्थिर रखा गया है, जबकि 11000 करोड़ रुपए से ज्यादा की मजदूरी और उधार सामग्री की राशि इसी से चुकाई जाएगी। तो मनरेगा मद में भी इस बार फिर, मुद्रास्फीति को गणना में लेने पर, 17% से अधिक की कटौती सामने आती है, जबकि मनरेगा को 'ग्रामीण भारत की जीवन रेखा' माना जाता है। वैसे भाजपा की मनरेगा से दुश्मनी किसी से छुपी हुई नहीं है।
प्रधानमंत्री बीमा योजना और प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि इसी सरकार की बहु प्रचारित योजनाएं हैं, लेकिन बीमा योजना में भी 3622 करोड़ रुपयों की कटौती की गई है। मुद्रास्फीति पर आधारित गणना के अनुसार यह कटौती 26% से ज्यादा है। किसान सम्मान निधि के आबंटन में भी कोई वृद्धि नहीं की गई है, जबकि करोड़ों किसान आज भी इस योजना के दायरे के बाहर है। वर्ष 2019 में यह योजना लागू की गई थी और तब से इस योजना में शामिल किसानों को केवल 500 रुपए महीने ही दिए जा रहे है, जबकि पिछले छह सालों में महंगाई 35% से ज्यादा बढ़ गई है।
हमारे देश में किसानों के लिए उर्वरक सब्सिडी में आबंटन बजट का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। हम इस मामले में आयात पर काफी निर्भर है और खेती-किसानी के मौसम में किसान हमेशा खाद के संकट से जूझते हैं। इसके बावजूद खाद सब्सिडी 171299 करोड़ रुपए से घटाकर 167887 करोड़ रुपए कर दी गई है। 3412 करोड़ रुपयों की यह कटौती वास्तविक अर्थ में 7% के बराबर है। इसका असर हमारे देश की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता पर पड़ेगा। इसी प्रकार, खाद्यान्न सब्सिडी में भी, हर बार की तरह इस बार भी, भारी कटौती की गई है। इसका सीधा प्रभाव सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर पड़ेगा, क्योंकि मुफ्त खाद्यान्न का प्रचार अपनी जगह, करोड़ों लोग सस्ते अनाज की उपलब्धता से वंचित हो जाएंगे। मोदी सरकार का यह कदम वैश्विक भूख सूचकांक में हमें और नीचे धकेलेगा।
तो फिर किसानों के लिए क्या है? प्रधानमंत्री धन धान्य योजना है, जिसके लिए कोई बजट ही आबंटित नहीं किया गया है! बीमा क्षेत्र में 100% एफडीआई है, जिसका अर्थ है बीमा क्षेत्र का पूरा-पूरा निजीकरण। किसानों को एफपीओ में संगठित करने की घोषणा है, जिसका अर्थ है कृषि के कॉरपोरेटीकरण की ओर बढ़ना।
वास्तव में यह सरकार जिस तरह कॉरपोरेटों को टैक्स में छूट दे रही है, उनके बैंक कर्ज माफ कर रही है और उन पर संपत्ति कर और विरासत कर लगाने से इंकार कर रही है, उसके पास अपने राजस्व संग्रह को बढ़ाने का कोई रास्ता ही नहीं रह गया है। इस सीमित राजस्व के साथ आम जनता के लिए लोक लुभावन घोषणाएं होंगी, जिसका बजट आबंटन से कोई संबंध नहीं होगा और कॉरपोरेटों को इस देश की संपदा को लूटने की खुली छूट होगी, जिसके बारे में बजट कभी नहीं बताएगा। यह वास्तव में कॉरपोरेटों की लूट को आसान बनाने के लिए कॉरपोरेटों द्वारा ही बनाया गया बजट है, जिसे मोदी सरकार ने निर्मला सीतारमण के मुंह से पेश किया है।
*(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)*
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