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शोषण के विरुद्ध कलम की लड़ाई: प्रलेस के 90 वर्ष पर जगदलपुर में विचार गोष्ठी का आयोजन

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जगदलपुर :  उर्दू और हिन्दी के महान् साहित्यकार प्रेमचंद की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अखिल भारतीय अधिवेशन लखनऊ में 9 और 10 अप्...

जगदलपुर : उर्दू और हिन्दी के महान् साहित्यकार प्रेमचंद की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अखिल भारतीय अधिवेशन लखनऊ में 9 और 10 अप्रैल 1936 को संपन्न हुआ था। 

 सज्जाद ज़हीर और मुल्कराज आनंद ने इस संगठन की बुनियाद रखी थी। 


9 अप्रैल 2025 से प्रगतिशील लेखक संघ का 90 वाॅं स्थापना वर्ष शुरू होने के उपलक्ष्य में लाला जगदलपुरी केंद्रीय पुस्तकालय परिसर स्थित ज़िला ग्रंथालय (पूर्व युवोदय अकादमी) में कार्यक्रम आयोजित किया गया । प्रेमचंद के चित्र पर माल्यार्पण के पश्चात कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए जगदीश चंद्र दास ने प्रगतिशील लेखक संघ के गठन की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पृष्ठभूमि की जानकारी दी।


प्रगतिशील साहित्य और भारतीय समाज विषय पर अपने महत्वपूर्ण व्याख्यान का आरंभ करते हुए समाजशास्त्री और पूर्व प्रोफेसर अली एम. सैयद ने कहा कि पहले अखिल भारतीय अधिवेशन में प्रेमचंद ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में लेखन को लेकर जो बातें कही थी वह आज भी हम सबके लिए प्रेरणा का स्रोत है। लेखक समाज से गैर बराबरी को हटाने और शोषण को समाप्त करने के लिए जागरुकता पैदा करने का एक माध्यम बन सकता है। समाज में हर समय सामाजिक सरोकारों को लेकर लेखन करने वाले लेखकों की जरूरत रहती है। उन्होंने उन्होंने प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का उदाहरण देते हुए कहा कि समाज में व्याप्त बुराइयों और विषमताओं को अपने लेखन का विषय बनाकर परसाई जी ने निर्भीक होकर बातें रखीं।


लेखक को हमेशा मानवता के पक्ष में, शोषण और असमानता के विरुद्ध खड़ा रहना चाहिए।

आज़ादी के पहले और बाद के भारतीय समाज में ग़ैरबराबरी और शोषणकारी व्यवस्था के बने रहने का उल्लेख प्रोफेसर अली ने किया। भारतीय समाज में धार्मिक परंपराओं और जातीय संरचना ने ग़ैरबराबरी को न केवल बनाकर रखा हुआ है, बल्कि और सुदृढ़ किया है। धारणाएं रूढ़ हो चली हैं और हमें रूढ़िवादी विचारों से मुक्त होकर गतिमान होने की जरूरत है। अपने व्याख्यान में उन्होंने कहा कि स्वातंत्र्योत्तर भारत में एक नई तरह की उपनिवेशवादी, शोषणकारी व्यवस्था बन गई है जिसका सच आम जनता के विरुद्ध है। प्रगतिशील साहित्य रचने की चुनौतियां आजादी के पहले की तरह ही हैं। आज के लेखक को समाज से से समाज से धार्मिक और जातीय उन्माद खत्म करने के लिए साहित्य रचना की प्रतिबद्धता व्यक्त करनी होगी। समानता के लिए संघर्ष करना होगा।



 प्रगतिशील साहित्य का एजेंडा समाज से गैर बराबरी को शोषण को दूर करना है। प्रोफेसर अली के व्याख्यान में निहित कथ्य को श्रोताओं ने बहुत सराहा।

प्रगतिशील लेखन के तत्वों पर हिमांशु शेखर झा , मदन आचार्य , उर्मिला आचार्य ने भी अपने विचार रखें। 

योगेंद्र राठौर ने आभार प्रदर्शन किया ।



कार्यक्रम का संचालन जगदीश चंद्र दास ने किया। इस कार्यक्रम में गोपाल पांडे,एम ए रहीम ,प्रकाश चंद्र जोशी, गायत्री आचार्य, कविता बिजोलिया, रेखा सेन ,ख़ुदेजा खान, सुषमा झा, करमजीत कौर ,शैल दुबे सुनील श्रीवास्तव, सरिता पांडे, माधुरी कुशवाहा, राजेश सेठिया भी उपस्थित थे।

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